‘परिंदों की दुनियाँ’
उषा चढ़ी
रात ढली
मन बाग – बाग हुआ।
बागों को देख
चिड़ियों को देख
घोसलों में परिदों को निरेख।
नीड़ से झाँक रहे हैं वे
करते इंतज़ार दानों का
घर लौट आने के बहानो का।
माँ की राह देख परिंदे
रह – रहकर कुचलाते हैं
होते देख प्रफ़ुल्लित माँ को
हर्ष से इठलाते हैं।
एक – एक दाने सँजोकर
चोंच में भर वो लाती है।
फिर अपने लाल को देख
झूमकर वो गाती है।
देखकर मन होता बाग़
प्रकृति का क्या लेखा – जोखा है
ऐसे रिश्ते ऐसा प्यार
हमने तो कहीं न देखा है।