परिंदा
भटक गया हूँ राहों में ,खो गया हूँ दुनिया में ,
बैठा अकेला सोच रहा हूँ ,क्यों हुआ अकेला अपनों में !!
पंख दिया मुझे ईश्वर ने ,चाहु न कहाँ मै उड़ जाऊ !
सैर करू मै दुनिया का ,और फिर अपनों से मिल जाऊ !
इतनी ऊँची उड़ान भरु की ,पूरी धरती एक बिंदु दिखे !
कौन है अपना कौन पराया ,वो बिंदु एक परिवार दिखे !!
वो भी क्या दिन थे ,जब हम झुंडो में ही उड़ते थे !
सारे गम और खुशियों को ,हम साथ साथ ही जीते थे !!
तब हम केवल दाने चुगकर ,चैन से सो तो लेते थे !
अपनों से गम को साझा करके ,जी तो हल्का कर लेते थे !!
अब दानों से भंडार भरा है ,पर चैन कहाँ है सोने में !
आगे तो हम बहुत आ गए ,पर ठहराव कहाँ है जीवन में !!
अपनी अपनी मंजिल पाने , सब निकल पड़े हैं राहों में !
बैठ अकेला सोच रहा हूँ ,क्यों हुआ अकेला अपनों में !!