‘परहित पर परतीति’
जल गईं तीलियां सारी, चिंगारी भी न रही,
बन गए रिश्ते बेसक, कोई दूरी भी न रही।
अवगुण ही हों किसी में ये हो नहीं सकता,
गुण खोजने की मुझमें शातीरी ही न रही।
सोते-जागते, उठते-बैठते, बस आता ज़िक्र उनका,
वो दिल में समाये हैं सिर्फ़, हर-दम फ़िक्र उनका।
अवगुण जो गिनाते रहे, सदा दूसरों के मुखबिर,
अपने ना याद करते कभी, आदि न अंत जिनका।
परगुण का गुणगान करो, स्वयं गुणवान बन जाओगे।
औरों का सम्मान करो, तुम स्वयं मान बन जाओगे।
सरल-हृदय, कृतज्ञ, परमारथ, पुण्य लाभ कमाओगे।
परहित ही स्वहित हो मयंक, तुम महान बन जाओगे ।