परवाह…
एक परवाह ही, सारे रिश्तों का वज़ूद होती है…
वरना दुनिया में हर रिश्ता, दाग़दार होते देखा है…
अपने तो अपने होते हैं, की दुहाई देने वालों
अपनों के भेष में, कुछ भेड़ियों को छुपते देखा है…
रिश्ते खून से नहीं, दर्द और एहसास से हैं
वरना मतलब के लिए, हर शख़्स बदलते देखा है…
सभ्यता की ऊँची-ऊँची, बातें करनेवाले ठेकेदारों
अक्सर बहुओं को घूँघट में, सिसकियाँ लेते देखा है…
अपने हिस्से की दौलत, माँ-बाप ही लुटा सकते हैं
बच्चों की बारी आने पर, उनको झुकते, रोते देखा है…
-✍️देवश्री पारीक ‘अर्पिता’