परथन का आटा
रोटियाँ बेल रही माँ के कंधे पर
झूलती छोटी बच्ची
ज़िद करती थी अक्सर
माँ ! रहने दो ना
एक आखिरी छोटी वाली लोई
मैं भी बनाऊँगी एक रोटी
जो तुम्हारी बनायी रोटी से
होगी बहुत छोटी जैसे
मैं तुम्हारी बेटी छोटी-सी
वैसे ही तुम्हारी बड़ी रोटी की बेटी
मेरी वाली छोटी रोटी
और तब माँ समझाती
बड़े ही प्यार से
रोटी छोटी हो या बड़ी
एक रोटी दूसरी रोटी की
माँ नहीं होती
हाँ ! बहन हो सकती है।
तब आश्चर्य से पूछती
वो मासूम बच्ची
अच्छा! तो फिर
रोटियों की माँ कौन होती है ?
गोद में बिठा कर बेटी को
माँ हँसकर कहती
ये जो परथन का आटा है ना
यही रोटियों की माँ होती हैं
जो सहलाती हैं उसे
दुलारती है, पुचकारती है
लिपटकर अपनी बेटी से
बचाती है उसे बेलन में चिपकने से
ताकि वो नाचती रहे, थिरकती रहे
और ले सकें मनचाही आकार
आज वो बच्ची बड़ी हो गई है
और अहसास हो रहा है उसे
सचमुच माएँ भी बिल्कुल
परथन के आटा की तरह होती हैं
जिनके दिए संस्कार, प्यार-दुलार, दुआएं
लिपटी रहती हैं ताउम्र अपनी संतान से
ताकि सही आकार लेने से पहले ही
वक्त के बेलन तले चिपककर
थम न जाये उसकी जिंदगी।
©️ रानी सिंह
(मेरे काव्य संग्रह ‘देह, देहरी और दीया’ से…)