परछाई
झुक गई मतलब
छोटी हो गई क्या?
मेरे अभिमान की उम्र तो
हिमालय की आयु से ज्यादा है।
व्याकरण के सब नियमों का
उल्लंघन कर ,
कविता लिख रही हूँ ,
कवि हूँ मैं
लाँघने की सारी प्रक्रिया को
अनुसरण कर
बदलने लगती हूँ कुछ दृश्यों को ,
और फिर सपने की
बात क्या करें!
समय तो ऐसा
जैसे कोई पॉकेटमार ,
खाली घड़ी देखने से
क्या फायदा ,
अब बेताल भी विक्रमादित्य
का किरदार निभाने को तत्पर ,
मैं गढ़ने लगी हूँ
मिट्टी की एक पृथ्वी
मगर वहाँ भी अपने मर्जी की
जिंदगी जीने का
साधन कहाँ ?
सोचा था
सब कुछ कर सकता है कवि
पर कहाँ लांघ सकता है
अपनी परछाई को !
***
पारमिता षड़ंगी