परछाई न पकड़ी जाती
धीरे धीरे चुपके चुपके,
आ जाती हैं निंदिया ।
जब निहारता हूँ उनको,
नजर आती है बिंदिया ।।
सूरज कहूँ या चंदा,
इतना उज्ज्वल चरित्र ।
यहाँ वहाँ जहाँ देखूँ ,
पाता उनका ही चित्र ।।
वाणी हैं इतनी शीतल,
सुनकर होता मन गदगद ।
जब साथ उनका पाता,
बढ़ जाता हैं मेरा कद कद ।।
देख खिलखिलाती हँसी,
भूल जाता हूँ सारे गम ।
पल भर भी न उनको देखूँ ,
छा जाता है घोर तम ।।
जग में जहाँ भी वो रहे,
खुशियाँ चूमे उनके कदम ।
जीवन के हर राग रंग में,
उनको मिले स्थान प्रथम ।।
मन को कितना समझाए ,
परछाईं न पकड़ी जाती ।
वो संग संग सदा रहती ,
कभी न दूर हमसे भाती ।।
हम अहं के उजियाले में,
देख उन्हें फिर नही पाते ।
बनकर धृतराष्ट्र समान ,
मोह से अंधे हो जाते ।।