परछाई उजली लगती है।
परछाई उजली लगती है,
कितना दुष्कर मलिन समय है।
हम कितने काले हो सकते हैं,
इसका अनुमान हो रहा,
हम में कितना दोष भरा है,
इसका कुछ कुछ भान हो रहा,
तोड़ नहीं हम सकते जिसको,
लिप्सा का वह विकट वलय है,
परछाई उजली लगती है,
कितना दुष्कर मलिन समय है।
छायाएं बतलाती कहती,
यह कितनी अदभुद लीला है,
शशि की चमक बढ़ी है जैसे,
व दिनकर लगता पीला है,
राहु मुदित हो रहा देख यह,
सूरज का हो रहा विलय है
परछाई उजली लगती है,
कितना दुष्कर मलिन समय है।
जब निर्माण हुआ था जग का ,
सबमें ही संगीत घुला था,
सबको था उपहार सुरों का,
व सबको ही गीत मिला था,
मानव,मौसम, धरती , सागर,
अब सबकी ही बिगड़ी लय है,
परछाई उजली लगती है,
कितना दुष्कर मलिन समय है।
कुमार कलहंस।