‘पथ भ्रष्ट कवि’
‘पथ भ्रष्ट कवि’
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पथभ्रष्ट एक लोक कवि का अवरोध मिला कुछ क्षण मगर वेग पवन की दिशा नही बदली।
लाख सिखाया गा-गा कर गुमराही के गीत मगर सांसों में झंझावात की झंकार पुरानी वही रही।
मुखड़े पर डाला लाख मुखौटा दिल की चाहत छुप न सकी, सिक्कों की खनक बतला ही दिया है राज़ है कितना गहरा, सच बातों को ढँक न सकेगा गुमराहों का चिथड़ा।
भेष बदल कर बहुरुपिया बन ढोंग नये नित रच – रच कर करते रहे जो करोबार चंद पिपासु दरबारों का ।
हार गयी अब सारी चालें मन दर्पण में झांक कर देखो उतरा रंग मुखौटे का।
अब रूप नया क्या दिखलाओगे हर रूप तेरा जाना – पहचाना छुपा चोर मन के अंदर का
दर्शा दिया है ‘जनता की आवाज़’ कवि का सच्चा चेहरा।
* मुक्ता रश्मि *
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