पथराई आँखें
अंधेरों को तलाशा करती आँखें,
उजालों से वो पथरा-सी गई हैं।
कहे दीवाना चाहें उसको कोई,
इश्क से अब वो घबरा-सी गई हैं
मुहब्बत रास कब आती किसी को,
इसे सच जान इठला-सी गई हैं।
ना कोई ठौर, ना कोई ठिकाना,
बंजारा बन वो इतरा-सी गई हैं।
साथी कौन किसका कब रहा है,
तन्हाई अब है साथी, जतला-सी गई है।
साथ कब देती परछाई भला, सुन
तम के साए से वो शरमा-सी गई हैं।
जगी आँखों से रेलमपेल जग का,
इस जहाँ से रुलाई-सी गई हैं।
जो नज़रे चार होने को थी पल में
वही नज़रे चुराई-सी गई हैं।
‘इन्दु’ लेकर उधारी रोशनी की,
लुटा के खुद को, बिखरा-सी गई हैं।
इन्दु
इन्दु