पत्र प्रिय को
प्रिय तुम !
तुम कौन !
वो तमाम लोग, जो अक्सर आशा करते हैं, कि मैं अपनी निराशा, अपनी विरक्ति से ऊपर उठ कर कुछ ऐसा लिखूं जो उन के संघर्षों के लिए प्रेरणा बने।
थोड़े आसान शब्दों में कहूं तो जो दूसरों के संघर्षों में तलाशते हैं स्वयं को : जैसे मैं तलाशता हूँ,दूसरों की पीड़ा में अपनी पीड़ा।
शायद मैं सहज ही लिख देता कि, बंद करो….
बंद करो यह दूसरों के संघर्षों और परिणामों से बांध कर खुद को घसीटना।
कभी ठहर कर, अपने पैरों के छालों को तो देखो: तुम्हे तरस नहीं आता खुद पर ?
लेकिन सफलताओं के साहित्यकारों ने कहा होगा तुम से कि मत देखना अपने पैरों के छालों को, बस चलते जाना, निरंतरता के साथ, अपने लक्ष्य की ओर : उचित भी है!
तरस खा कर रुक जाना कायरता जो ठहरी, है ना!
कायरता…….मैने अक्सर झूलते देखा है बंद कमरे में इस कायरता को। यकीन मानो वहां बोझ शरीर का नही बल्कि तुम्हारी और तुम्हारे अपनो की उम्मीदों का होता हैं ।
इतना भारी बोझ के तराजू में एक तरफ संसार की समस्त सफलता- संघर्ष कथा और दूसरी तरफ बस वो एक झूलती नाकाम उम्मीद : फिर भी नाकाम उम्मीद, वो अकेली झूलती बहुत भारी साबित होती है ।
दूसरे के संघर्षों को टटोल कर जो ढूंढते हो तुम अपने लिए सफलता, तुम्हें नही लगता यह हवस और लालच की पराकाष्ठा हैं, जो इस समाज ने, तुम्हारे अपनो ने तुम्हें सिखाई है क्योंकि तुम्हारी आकांक्षाएं तुम्हारी अपनी है, तुम से उम्मीदें तुम्हारे अपनो की लेकिन तुम्हारा सामर्थ्य, किसी ओर की थाली में मुँह मारता हुआ ! या फिर उस रावण की भांति पराई स्त्री को छलता हुआ ।
जानते हो यह समाज डरता है ! डरता है कि, कहीं तुम स्वयं को जानने ना निकल पड़ो। क्योंकि जब जब मनुष्य स्वयं को जानने निकलता है तो उस का अंतिम साक्षात्कार होता है, वन वासी राम से जिसे वह ईश्वर मान बैठता है। लेकिन विडंबना देखो भगवान बनना पीड़ाओं का अंत है और संघर्षों का भी : लेकिन भगवान बन न अंत है जीवन के आनंदों का भी :
समाज की चेतना में भगवान समाज का हिस्सा है ही नही ।
फिर क्यों तुम्हारी चेतना का हिस्सा है,
एक ऐसा संघर्ष जो तुम्हारा है ही नही, फिर क्यों मेरी चेतना का हिस्सा है
ऐसी पीड़ाएं जो मेरी है ही नही ?
क्योंकि शायद मैं तुम्हारा समाज हूँ और तुम मेरे !!