पत्र की स्मृति में
अभी तक
मानस-पटल पर अंकित हैं..
वो सशक्त लम्हें!
जब एक पत्र की प्रतीक्षा में..
मन उलझ पड़ता था
अतीत और वर्तमान से।
झाँक पड़ती थीं स्मृतियाँ
प्रतीक्षा के रोशनदान से।
एक पूरा दिन बीत जाता था
अनुमान के संग..
पोस्टमैन का न आना
कर देता था उम्मीदों को बदरंग!
चिंतित उलझनों के साथ,
जागती थी रात!
सुस्त होकर,
छलछला पड़ती थी आशा..
बढ़ने लगता था घर की देहरी पर भार..
चिड़चिड़ाने लगते थे, बचपन के साथी से.. द्वार!
पीला मौसम!
भूलने लगता था
खुशगवार गुलाबी रंग।
अस्त-व्यस्त मिलते थे
पन्नों पर छंद!
रुला-रुला जाती थीं पिछली मुलाकातें..
सर चढ़कर बोलती थीं
कुछ गुमनाम बातें।
जबरन मुस्कराना चाहती थीं
कुछ हतप्रभ सी कसमें!
कितने यादगार होते थे
वो प्रतीक्षित से लम्हें!
स्वरचित
रश्मि लहर
लखनऊ