पत्रकारिता और हिन्दी साहित्य
पत्रकारिता और हिन्दी साहित्य
-विनोद सिल्ला
भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में समाचार-पत्रों, पत्रकारों और पत्रकारिता सराहनीय योगदान रहा। उस समय पत्रकारिता वही लोग करते थे, जो साहित्यकार भी थे। देश स्वतंत्र हुआ। धीरे-धीरे साहित्य की और पत्रकारिता की भी परिस्थितियां बदली गई। 1947 के बाद हम पूरी स्वतंत्र हो गए। इतने स्वतंत्र हो गए, हमने जो चाहा वही किया। हम इतने स्वतंत्र हो गए कि गैर साहित्यिक व्यक्ति साहित्यकार हो गए। बिना जर्नलिज्म, बिना मॉस कम्यूनिकेशन, पढ़े ही पत्रकार हो गए। आज जिसको देखो वही पत्रकार, हर गली अखबार, खबरें चार, विज्ञापन हजार। प्रत्येक समाचार-पत्र समूह सभी ओपचारिकता पूरी करते थे। अपने यहां प्रत्येक विधा में पारंगत साहित्यकार नियुक्त करते थे। साहित्यिक पृष्ठ के अलग संपादक होते थे। राजनीतिक मामलों के अलग प्रभारी होते थे। फोटोग्राफर, प्रूफ रीडर, कार्टूनिस्ट, स्तंभकार, व्यवस्थापक व अन्य प्रभारी नियुक्त होते थे। इन सबके योगदान से ही सही मायने में पत्रकारिता संभव होती थी। आज कुछ ऐक ही समाचार-पत्र समूह ऐसे हैं। जो पत्रकारिता के मापदंड पूरे करते हैं। वरना सभी स्वतंत्रता का जश्न मनाने हुए जो जी में आए वो कर डालते हैं। आज जो समाचार-पत्र समूह अपने आप को राष्ट्रीय समाचार पत्र होने का दंभ भरते हैं। वो भी विज्ञापन की चकाचौंध में चुंधिया कर, नैतिक मूल्य त्याग कर ओंधे मुंह गिर पड़ते हैं। मूर्छा में इतना भी होंश नहीं रखते कि समाचार पत्र का प्रथम पृष्ठ समाचार-पत्र समूह का नहीं बल्कि पाठकों का होता है। नैतिक मूल्यों को मात देकर, पूरा का पूरा प्रथम पृष्ठ भी विज्ञापन के हवाले कर देते हैं। जहाँ होने चाहिए थे राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय महत्व के समाचार, वहाँ पर झूठे दावों के साथ, विज्ञापन में कार्पोरेट घरानों के उत्पाद बिक रहे होते हैं। जिनके नीचे आमजन को छलने के लिए, कोने में पाठकों की नज़र को नज़रबंद करके लिखा होता है “शर्तें लागू”। इस कारगुजारी के माध्यम से यह स्पष्ट संदेश दिया जाता है कि राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय महत्व के मुद्दे कार्पोरेट घराने, उनका उत्पाद व उनके विज्ञापन ही हैं। तमाम समाचार पत्र अपने मनमाफिक रस्सी का सांप बना डालते हैं और सांप की रस्सी। मानते हैं कि पाठक के पांच रुपए से अखबार नहीं चलते, विज्ञापन भी जरूरी हैं। आटे में उचित मात्रा में नमक मिल जाए तो रोटी के स्वाद में चार चांद लग जाते हैं। लेकिन ये हैं कि नमक में आटा मिला कर बेचना चाह रहे हैं।
मेरा मित्र छपाऊराम हर रोज प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों व पत्रिकाओं में छ्प जाता है। छपाऊराम की कच्ची- पक्की रचनाएं पढ़कर, गुस्सा छपाऊराम पर नहीं आता बल्कि जिन्होंने उसे छापा उन समाचार पत्रों पत्रिकाओं और उनके साहित्यिक संपादकों पर आता है। जिनके पास प्रकाशित विषय-वस्तु को मापने की कोई कसौटी नहीं, सब कुछ विज्ञापन शरणं गच्छामि। साहित्यिक व्यक्तित्व पत्रकारिता में थे तब समाचार-पत्रों की भाषा सराहनीय-वंदनीय होती थी। आज समाचार-पत्रों में वर्तनी व व्याकरण की अशुद्धियां असामान्य बात नहीं है। जाने कितनी बार समाचार-पत्रों में संवेदनहीन व अमर्यादित भाषा का प्रयोग हुआ है। मेरे शहर के ज्यादातर पत्रकार सिर्फ और सिर्फ पत्रकारिता करते हैं। उनकी कोई दुकान, प्रतिष्ठान या व्यवसाय नहीं है। इतने विशुद्ध पत्रकार मेरे ही शहर में नहीं, मुझे लगता है कि हर शहर में ऐसे ही विशुद्ध पत्रकार होंगे। वे समाचारों व विज्ञापनों से अल्प आमदनी (कमीशन) में भी आलिशान जिंदगी जीते हैं। किसी रोज उनसे ऐसे जीवन-यापन का सलीका जानने का प्रयास करेंगे। ताकि हर परिवार में आर्थिक मजबूती लाकर खुशहाली लाई जा सके। पत्रकार खुशहाल हैं तो हम पाठक क्यों नहीं। हिन्दी साहित्यकारों ने पत्रकार बंधुओं से बहुत से गुर ही नहीं सीखे बल्कि पूरा प्रशिक्षण लिया है। जिसका परिणाम आर्थिक सहयोग आधारित साझा संग्रह, साक्षात्कार प्रकाशित करवाना, अवार्ड, समान पत्र सहित और भी कई हूनर। प्रिंट मीडिया में ही नहीं, इलैक्ट्रोनिक मीडिया में भी क्रांतिकारी परिवर्तन हुए। मूलधारा का इलैक्ट्रोनिक मीडिया और उसकी विज्ञापन की दर जब आमजन की पहुंच से दूर रहे तो आमजन ने स्वयं कैमरा उठाना जरूरी समझा। परिणाम-स्वरूप यूट्यूब पर, बन गए सबके चैनल। यहाँ भी होने लगे आर्थिक सहयोग आधारित साक्षात्कार, कविता पाठ, साहित्यकार के व्यक्तित्व व कृतित्व पर प्रसारण । यहां भी एक से बढ़कर एक करामात हो रही हैं। एंकर का उच्चारण सही हो या नहीं हो, पत्रकारिता की उचित योग्यता हो या नहीं, यूट्यूब पर चैनल रूपी लाठी उनके हाथ है तो भैंस भी इनकी ही होगी। वाट्सएप ग्रूप के एडमिन ने जो विषय देकर लिखवाया, कलमकार ने वही लिखा, प्रिंट मीडिया ने वही प्रकाशित किया। यूट्यूबर ने वही प्रसारित किया। अब इसमें शोषित, वंचित की पीड़ा पीछे छूट गई तो क्या हुआ।
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