पत्नियों द्वारा पतियों की पिटाई… खुदा ख़ैर करे!
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
आँचल में है दूध और आँखों में पानी
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने जब ये पंक्तियाँ रची, तब तक यह आलेख प्रकाश में नहीं आया था। यदि अपने जीवनकाल में वह पत्नी से पिटने का सुख भोग लेते, तो कदाचित उपरोक्त पंक्तियाँ न रचते, बल्कि यह कहते:—
इस जग में नारी को वही कहते अबला
बजा नहीं जिन महापुरुषों का तबला
ख़ैर पत्नियों द्वारा पतियों की पिटाई विश्व में कोई नई बात नहीं है। इस मामले में क्या यूरोप-अमेरिका? क्या एशिया-अफ्रीका? सभी महाद्वीप एक समान हैं! यह उन पुरुषों का सौभाग्य है—जो ये मानते हैं, ‘स्त्री-पुरुष समान हैं।’ तो फिर इस बात से लज्जित क्या होना कि फलाना आदमी अपनी पत्नी से पिटाई खाता है या रोज़ पिटता है। वरना ये कहावत कभी न बनती कि, ‘दुधारू गाय की लात भी भली लगती है।’ मुझे हैरानी इस बात की है कि संयुक्त राष्ट्र (यू .एन.) को अपनी ‘अध्ययन रिपोर्ट’ में ये बात अब पता चली, जो अपने भारतवर्ष की महान संस्कृति में आदि-अनादि काल से ‘चर्चा-ए-आम’ रही है। हमारे यहाँ स्त्रियों को चण्डी, काली, दुर्गा आदि शक्ति के रूप में पूजा जाता रहा है। जब यही शक्ति रूप पत्नियों में प्रकट होता है तो पतियों का पिटना तय है। बेलन, झाड़ू, चिमटा, जूता-चप्पल, बेल्ट या किचन में इस्तेमाल होने वाली वस्तुएँ इन रण चण्डियों (देवियों) का प्रमुख हथियार हैं।
आज सभी क्षेत्रों (राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक) में स्त्रियों की बराबर की भागीदारी है। जब तक स्त्री घरेलू थी, पति पर निर्भर थी, पति से पिटना उसका नसीब-सौभाग्य था। मौजूदा दौर में स्त्री ने आर्थिक स्तर पर पुरुष को लगभग पछाड़ दिया है; तो यह उसका अधिकार बन जाता है कि वो भी भारतवर्ष की पुरानी दकियानूसी परम्पराओं को तोड़ते हुए—पुरुषों के हाथ-पाँव समय-समय पर तोड़े। अपने तथाकथित प्रेमियों के ना सही, तो विशेषकर पतियों के हाथ-पाँव ही तोड़े। दारू, बीड़ी-सिगरेट पीने के लिए पहले पुरुष बदनाम था। अब आर्थिक रूप से स्त्री के मज़बूत होने से दारू बीड़ी-सिगरेट पीने का एकाधिकार (कॉपीराइट) स्त्री का भी बनता है।
भगवान श्रीकृष्ण बड़े ही रास रचइया रहे। समस्त गोपियाँ उनपर मोहित थीं। राधारानी तो बंसी की धुन पर अपनी सुध-बुध खो देती थी। ये सब तब तक ही था, जब तक कृष्णजी का विवाह नहीं हुआ था। उनकी शादी रुक्मणी जी से होने के बाद का एक क़िस्सा है। भोजन उपरान्त एक दिन देवीजी ने कृष्ण महाराज को काफ़ी गरम दूध दिया। दूध इतना गरम था कि भगवान को हृदय तक वह गरम महसूस हुआ। अतः उनके मुखारबिन्द से स्वतः ही निकल गया—”हे राधे।” देवी रुक्मणी जी का हृदय सौतिया डाह से तड़प उठा। वह तनिक रुष्ट होके बोली—”ऐसा क्या धरा है राधाजी में, जो आपको हर साँस में उनका ही नाम स्मरण हो जाता है। मैं तो आप पर जान छिटकती हूँ। सेवा में मर-मिटती हूँ! आश्चर्य कभी भी आपने मुझे नहीं पुकारा! कारण बताइये क्यों?”
भगवान सदैव की भांति मन्द-मन्द मुस्कुराने लगे और प्रेम से बोले, “देवी, आप तो राधा और मेरी प्रेमकथा से भली-भांति परिचित हैं! अतः यह व्यर्थ का प्रश्न क्यों?”
पति से उचित उत्तर न पाकर, रुक्मणी जी ने स्वयं ये भेद जानने के लिए राधा जी से मिलने का निर्णय लिया। राधा जी के भवन में सात द्वार थे। हर द्वार पर रुक्मणी जी को एक से बढ़कर एक सुन्दर व तेजवान दासियाँ दिखाई दीं। जो देवी राधा की सेवा में नियुक्त थीं। रुक्मणी जी को अपना सौन्दर्य क्षीण जान पड़ा। वह सोच में पड़ गई कि, ‘जब राधारानी जी की दासियाँ इतनी रूपवान हैं, तो राधा जी स्वयं कितनी रूपवान होंगी!’ चलते-चलते वह क्षण भी आया जब उन्होंने राधा जी के कक्ष में प्रवेश किया। जितना रुक्मणी जी ने सोचा था! राधिका उससे भी कहीं ज़ियादा रूपवान व तेजस्वी स्वरूप की स्वामिनी थी! लेकिन राधाजी के पूरे शरीर पर उभरे छालों ने उन्हें हैरान कर दिया। इसका कारण पूछा तो राधिका जी अत्यन्त कोमल स्वर में बोली, “देवी जी, कल आपने जो श्रीकृष्ण जी को दूध दिया था, वह इतना गरम था कि उससे प्रभु के हृदय में छाले पड़ गए। जहाँ मेरा भी वास है।” यहाँ द्वापर युग की इस कथा को वाचने का अर्थ मात्र इतना है कि, जब भगवान पर भी पति रूप में इतने संकट उभरे हैं तो फिर प्रभु के आगे हम तो निरे-नाहक निकृष्ट प्राणी ठहरे।
स्त्री को कभी भी कम नहीं समझना चाहिए। बड़े-बूढ़े बुज़ुर्ग भी कह गए हैं—”तमाम झगड़े और विवाद की मूल जड़ हैं, जर, जोरू और ज़मीन।” जो समझे, वो बच गए। जो न समझे, वो अपने कुल सहित तर गए। देवी सरस्वती जी के सौंदर्य से आकृष्ट होकर ब्रह्मा जी ने लार टपका दी और पृथ्वी पर उनकी पूजा बंद हो गई। ब्रह्मा जी का एकमात्र मंदिर पुष्कर, राजस्थान में बचा है। ऐसे ही देवी अहिल्या के कारण देवराज इन्द्र महाऋषि गौतम के शापवश नपुंसकता झेल रहे हैं। यहाँ प्रश्न उठता है कि जब स्वर्ग में अनेक सुन्दर अजर-अमर अप्सराएँ थीं तो देवराज को ऋषि पत्नी पर आकर्षित होने की आवश्यकता क्यों पड़ी? बात यही है कि, जो उपलब्ध है, वो पर्याप्त नहीं है! वह बासी रोटी-सा स्वादहीन जान पड़ता है। जबकि जिसको पाना है, खाना है वो ताज़े भोजन जैसा होगा! महाऋषि वेद व्यास कृत “महाभारत” काव्य में वर्णित कथानुसार ऐसे ही मुर्ख कौरवों ने देवी द्रौपदी की शक्ति को नहीं समझा और पंगा ले लिया। नतीज़ा महाभारत के युद्ध में पाण्डवों द्वारा कौरवों के कुल का समूल नाश। महर्षि वाल्मीकि कृत ‘रामायण’ का क़िस्सा भी जगजाहिर है। अपनी पत्नी देवी मंदोधरी से ऊबे रावण को भगवान श्रीराम जी की भार्या देवी सीता में रूप आकर्षण दिखा। अतः उस मूर्ख रावण ने देवी सीताजी का हरण कर लिया। अतः पत्नी को वापिस पाने के लिए प्रभु श्रीराम ने वानर सेना लेकर लंका पर चढ़ाई कर दी। इस प्रकार विश्व में पहली बार कोई स्त्री किसी के कुल के समूल उद्धार का कारण बन गई। कोई दिया जलाने वाला शेष न था। कवि शिरोमणि तुलसीदास ‘श्रीरामचरित मानस’ में कह गए हैं:—
एक लख पूत, सवा लख नाती।
ता रावण के घर, दिया ना बाती।।
स्वयं तुलसीदास अपनी पत्नी रत्नावली के सताये व्यक्ति थे। एक दफ़ा जब वो मायके गई थी तो तुलसी उनके पीछे-पीछे रात्रि में अपनी ससुराल पहुँच गए। साँप को रस्सी समझके रत्नावली के कक्ष में जा पहुँचे। तब अपने कामान्ध पति को लताड़ते हुए वो बोली, “जितनी प्रीत तुम मुझसे करते हो! इतना स्नेह राम से करते, तो आपकी मुक्ति वो जाती!” पत्नी के इन वचनों से तुलसी को ब्रह्मज्ञान हुआ और गृहस्थ जीवन त्यागकर सन्यासी हो गए। वाल्मीकि की संस्कृत ‘रामायण’ को अवधी बोली में ‘श्रीरामचरित मानस’ के रूप में रच डाला। यहाँ सन्यासी बनने से दो बातें हुईं। एक—तुलसीदास जी ने गृहस्थ जीवन का भविष्य, उस रात में देख लिया था; इसलिए पत्नी के हाथों और पड़ताड़ित होने से बच गए। दो—पत्नी की लताड़ से तुलसीदास जी का कवि रूप परिपक्व हो गया और वे कई ग्रन्थ रचकर अजर-अमर हो गए।
विश्व के अमर प्रेमियों लैला-मजनू, सीरी-फ़रहाद, हीर-राँझा, सोहनी-महिवाल आदि के क़िस्सों पर बनी यादगार फ़िल्मों की इश्क़िया कहानियों का दुःखद अंत देखकर मुझे अफ़सोस तो होता है, मगर ये सोचकर ख़ुशी भी होती है कि, ये महान प्रेमी शादी से होनी वाली प्रताड़ना से बच गए। क्या शादी के बाद इनका प्रेम अजर-अमर हो पाता? यह बात भी अभी ‘पी.एच.डी.’ छात्रों के लिए शोध का विषय है। शादी की बर्बादी पर एक मशहूर चुटकुला मुझे याद आ रहा है। जो शायद आपने भी कहीं सुना, पढ़ा या देखा हो क्योंकि अख़बारों, किताबों, मंचों से लेकर फ़िल्मों तक में इसका इस्तेमाल हुआ है।एक पागलखाने में दो पागल थे। एक शान्त रहता था। दूसरा आक्रामक-गुस्सैल। कारण जानने पर ज्ञात हुआ कि, ये दोनों किसी एक ही लड़की से प्रेम करते थे। जो शान्त रहता है, वह प्रेमिका को न पाने के ‘दुःख-वियोग’ से पागल हो गया। जबकि दूसरा आक्रामक-गुस्सैल पागल, वो अभागा व्यक्ति है, जिसकी उसी लड़की से शादी हो गई। अर्थात यहाँ इस चुटकुले का सार यह है कि, यदि मजनू, फ़रहाद, राँझा व महिवाल की भी शादी हो गई होती, तो क्या कमोवेश उनकी भी यही स्थिति नहीं होती, जैसी चुटकुले में वर्णित है? क्या इन प्रेमियों की प्रेम कहानियाँ तब विश्व में ऐसे ही लोकप्रिय हो पातीं, जैसी कि इनकी प्रेमिकाओं के न मिल पाने पर लोकप्रिय हैं? यही सत्य है—इस संसार में खोने का ही रोना है। खोना ही महानता का प्रतीक है। वहीं सब कुछ पा लेने पर, सब कुछ व्यर्थ है! लानत है! धिक्कार है! मिथ्या है। भरम है। सब ख़त्म है। शादी के बाद आशिक़ का इश्क़ मर जाता है! पति का सब्र टूट जाता है! प्रेमी का इन्तिज़ार ख़त्म हो जाता है! रह जाता है तो सिर्फ़ पीड़ा और प्रताड़ना का अध्याय, जिसे पत्नी बेलन, चिमटा, थापी, करछी, चप्पल आदि से खोलती है। बच्चों की किलकारियों में पति का पागलों की तरह चिल्लाना! तमाम झंझट झेलना, समस्त ज़िम्मेदारियाँ उठाना और अन्ततः उसी में मर जाना! कहानी में रोमांच तभी तक है, जब तक विवाह नहीं हुआ है। इन्सान जब तक कुंवारा है—तब तक मीठा छुवारा है। आदमी जब तक छड़ा है—तब तक ही मौज-मस्ती के साथ खड़ा है। इसलिए विश्व विख्यात प्रेमियों का दुःखद अंत देखकर, मुझे दुःख नहीं, ख़ुशी होती है कि, वो स्त्रियों (प्रेमिकाओं, जो उनकी संभावित पत्नियाँ होतीं!) की मार खाने से बच गए। औरतों से पिटाई होने का एक गीत गढ़वाली भाषा में सुविख्यात गायक नरेन्द्र सिंह नेगी जी ने भी गाया है:—
दारोल्या छौं ना भंगुल्या, भंगलाड़ा ढोल्यु छौं
कई मा ना बूलयां सूउऊउउउउउउउउउउउउ
कई मा ना बूलयां भैजियुँ, जननी कु मारयू छौं मे
कई मा ना बूलयां भैजियुँ, सैनियू कु मारयू छौं
दारोल्या छौं ना भंगुल्या, भंगलाड़ा ढोल्यु चौं..
कई मा ना बूलयां सूउऊउउउउउउउउउउउउ ..
उपरोक्त गीत का हिन्दी अर्थ ये है कि शराबी नहीं हूँ। भांग सेवन भी नहीं करता हूँ। फिर भी उपेक्षित हूँ। किसी को मत बताना भाई जी, औरतों से पिटा हूँ। यही हाल हिन्दी-उर्दू में रचनाएँ लिखने वालों का न हो जाये, इसलिए उर्दू अदब के शा’इरों से लेकर, हिन्दी साहित्य के कवियों ने प्रेम रस की रचनाएँ ज़ियादा रची हैं, ताकि पत्नियों के रौद्र रूप को शान्त रखा या किया जा सके। दूर क्यों जाऊँ, यहाँ अपना हाल का ही क़िस्सा बयान कर देता हूँ। कोरोना काल में कम्पनी ने घर से काम करने के लिए मैक (कम्प्यूटर) दिया हुआ है। जिस पर मैं अक्सर अपने पसन्दीदा गीत सुनता रहता हूँ। एक बार मैं ऊँचे सुर में माता का भजन सुन रहा था। हमारी धर्मपत्नी जी को जब गुस्सा आ गया, उसने मुझे बेलन दिखाया। ठीक उसी समय भजन की ये पंक्तियाँ प्रेरणा बनकर कक्ष में गूंजने लगीं—”दानव दल पर टूट पड़ो माँ, करके सिंह सवारी….” और धर्मपत्नी ने मुझ अभागे पति की तरफ़ बेलन फेंक दिया। ठीक उसी अंदाज़ में जैसे भगवान विष्णु शत्रुओं पर अपना सुदर्शन चक्र फेंकते हैं। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि, चक्र जहाँ शत्रुओं का गला काटता है और उन्हें मुक्ति मिल जाती है। वहीं बेलन पति का सिर फोड़कर शान्त हो जाता है, और पति को अस्पताल पहुँचा देता है। हम प्रहार होने से पूर्व ही तुरन्त धर्मपत्नी जी की तरफ पीठ करके, आज थोड़ा-सा झुक गए थे, तो बेलन कमर पर जाकर लगा और श्रीमति जी का रौद्र-कर्कश स्वर कानों में गूंजा—”कंजर को कब से कह रही हूँ, भजन की आवाज़ थोड़ा कम कर ले। मरदूद तेज़ सुर में ही सुनेगा! अब टूट गई न कमर…. और सुन साले!” और बेलन से उपजे भयानक कमर दर्द में मुझे भजन गायक नरेन्द्र चंचल अपनी घरवाली का फूफा जान पड़ा। “अम्बे तू है जगदम्बे काली….! जय दुर्गे खप्पर वाली….!!” मैंने ये भजन तुरन्त बन्द कर दिया ये सोचकर कि, ‘कहीं श्रीमती जी सब्ज़ी काटने वाले चाकू को चलाकर, मेरे ही खून से माँ काली का खप्पर न भर दे।’
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
दर्द के आलम में भी मुझे मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़ल का ये ‘मतला-ए-सानी’ याद आ रहा था। मैंने श्रीमतिजी का क्रोध शान्त करने के लिए रफ़ी साहब का रोमांटिक गाना लगा दिया, “मैं कहीं कवि न बन जाऊँ, तेरे प्यार में ऐ कविता….!” तब कहीं जाके उनका क्रोध शान्त हुआ।
एक क़िस्सा और है, हमारे दफ़्तर के एक मित्र हैं मुकेश जी, वो कोरोना काल में स्त्रियों को कोरोना की जगह रैबीज का टीका लगाए जाने से नाराज़ थे! ये वाक्या हाल ही में उत्तर प्रदेश के किसी सरकारी अस्पताल से जुड़ा है!
“हद हो गई लापरवाही की!” मुकेश जी घटना पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए बोले, और मुझसे मेरी राय मांगी।
“रो क्यों रहे हो मुकेश भाई? शायद आप सुरक्षित नहीं हैं इसलिए?” मैंने उस रोज़ कुछ दारू भी पी रखी थी, इसलिए बिन्दास राय रखी, “हम तो दो साल पहले ही सुरक्षित हो गए थे, जब एक पिल्ले ने मेरी मिसेज को काट लिया था! तो मैंने दिल्ली के सफ़दर जंग पत्नी को रैबीज के टीके लगवा दिए थे!” और वो घटना आँखों के सामने सजीव हो उठी!
हुआ यूँ था कि पत्नी को जब कुत्ते ने काटा तो अगले दिन मुझे ये कहकर मैगी लेने भेजा गया कि दुकानदार मनीष से पूछ लेना, उस पिल्ले का क्या हुआ?
“मनीष भइया जी, ये लो दो पैकेट मैगी के बीस रूपये!” मैगी के पैकेट्स हाथ में लेते हुए मैंने कहा, “अब तुम ये बताओ, उस पिल्ले का क्या हुआ, जो तुम्हारी दुकान के बाहर सोया रहता था? उसने मेरी बीवी को काटा था दो दिन पहले?”
“वो पिल्ला तो अगले दिन ही मर गया था,” मनीष ने जब ये कहा तो उसके पीछे खड़ी उसकी बीवी निशा ये सुनके दहाड़े मार के खूब हंसी! मगर मेरा गंभीर चेहरा देखकर हंसी रोकने की नाकाम कोशिश करने लगी।
“ओह! मुझे इसका बहुत दुःख है!” कहकर मैंने अफ़्सोस ज़ाहिर किया, फिर मन ही मन में सोचा, ‘बेचारे पिल्ले को क्या पता था कि नागिन को काट रहा है! ख़ैर अंज़ाम की सज़ा पाई उसने!’
“क्या सोचने लगे?” मनीष ने पूछा, और किस बात का दुःख है, पिल्ले द्वारा भाभी जी को काटे जाने का?”
“नहीं, पिल्ले के मर जाने का!” मेरे कथन पर दोनों मियां-बीवी दहाड़े मारके हँसने लगे।
“भाईसाहब एक सलाह दूँ आपको, यदि बुरा न माने!” दुकानदार मनीष ने कहा।
“हाँ…. हाँ…. क्यों नहीं?” मैंने तुरन्त सहमति दर्शाते हुए कहा।
“शुक्र करो पिल्ले ने भाभी जी को काटा था, और वो अगले दिन मर गया!” मनीष ने पहली बार मुझसे कोई समझदारी की बात की थी, “यदि आप होते तो….?”
“धन्यवाद! सलाह के लिए!” उस रोज़ वो दोनों पति-पत्नी देर तक हँसते रहे! अगले कई दिन तक मुझे देखकर बह भी हँसते रहे!
मैंने समझदारी से काम लिया और अगले दिन तुरन्त राजधानी दिल्ली के सफ़दरजंग अस्पताल जाकर रैबीज का टीका मिसेज को लगवाया, ये सोचकर कहीं पिल्ले जैसा अन्जाम मेरा भी न हो जाये! जैसा कि दुकानदार मनीष का कहना था, क्योंकि उसे पता था मेरी पत्नी मुझसे आये दिन बात-बे-बात लड़ती है।
ख़ैर भारतीय तो आजीवन पत्नी की ज़्यादती व पिटाई झेलते हैं और आह तक नहीं भरते लेकिन मैं यहाँ कुछ ऐसे क़िस्सों का ज़िक्र कर रहा हूँ जो मामूली होते हुए भी तलाक़ का कारण बने। पति तलाक़ दे दे, तो खलनायक हो जाता है, जबकि पत्नी तलाक़ दे, तो हीरोइन कहलाती है। यहाँ विदेशों में हुए कुछ तलाक़ के कुछ क़िस्से हम जानेंगे! जहाँ बिना मार-पिटाई के तलाक़ हो गए। पहला क़िस्सा हाल ही में अमेरिका में वोट को लेकर है। राजनीति आज किस क़द्र जनजीवन पर हावी हो चुकी है, ये बात इस घटना से स्पष्ट हो जाती है। हुआ यूँ कि जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने चुनाव लड़ा तो उस समय अमेरिका के कैलिफोर्निया में रहने वाली एक महिला ने, अपनी बाइस बरसों पुरानी शादी को तोड़ दिया ये कहकर कि, उसके पति ने डोनाल्ड ट्रंप के पक्ष में वोट देकर उसके साथ धोखा किया है। अतः वह अपने पति से तलाक़ ले रही है। अब इन देवी जी को कौन समझाये कि, ट्रम्प को उसने सिर्फ़ वोट दिया है न कि ट्रम्प से ब्याह रचाया है! हद है मूर्खता की भी!दूसरा क़िस्सा जर्मनी की एक महिला का है, जिसने डेढ़ दशक पुरानी शादी को पति की सफाई की सनक के चलते खत्म करने का फैसला किया। इस महिला ने अदालत में बयान दिया कि—वह पन्द्रह बरसों तक अपने पति की हर चीज को बार-बार साफ़ करने तथा व्यवस्थित करने की आदत को पागलपन की हालत तक बर्दाश्त करती रही, पर एक दिन तो वाकई में हद हो गई, जब पतिदेव ने घर की एक दीवार को ही गिरवा कर फिर से बनवाया क्योंकि पतिदेव के हिसाब से वो दीवार घर के लुक को खराब कर रही थी, जबकि पत्नी को इसके कारण बहुत ज्यादा दिक्कत हो रही थी। अतः पत्नी का धैर्य जवाब दे गया और पति को तलाक दे दिया। यहाँ तो तलाक़ का निर्णय कुछ हद तक सही भी माना जा सकता है। घर की दीवार गिराकर और फिर उस दीवार को पुनः बनाकर उस पागल आदमी ने आर्थिक नुक़सान किया है।
ख़ैर इस मामले में कुछ पति भी पीछे नहीं है। किसी पार्टी में एक वकील ने गपशप करते हुए अपने दोस्तों को बताया, मैंने अपने सहयोगी के कार्यालय में तलाक़ के लिए आए, दंपति को बहसते देखा। अचानक पति ने चिल्लाकर कहा—”मैं तुमसे तलाक़ चाहता हूं क्योंकि तुम टॉयलेट में फ्लश नहीं चलाती हो।” अबे मुर्ख आदमी फ्लश का एक बटन ही तो दबाना था या हैंडिल ही घूमाना था, पानी अपने आप सारी गन्दगी साफ़ कर देता! कौन सा इन पति महाशय को हाथ से गन्दगी उठाकर साफ़ करनी थी? ये तो सरासर नाइंसाफ़ी की, भाईसाहब ने!
छोटे मामलों में तलाक़ के कुछ और छोटे-छोटे क़िस्से हैं। जिन्हें सुनकर आपको हँसी आएगी लेकिन जिनके साथ ये घटे, उनका क्या हाल हुआ होगा? ये दुःख मैं भलीभांति समझ सकता हूँ। एक महिला ने महज इसलिए तलाक़ लिया क्योंकि उसका पति बहुत ही ज्यादा टॉयलेट पेपर इस्तेमाल करता था। अनेक दफ़ा दोनों का इस बात को लेकर झगड़ा भी हुआ लेकिन पति की ये आदत न सुधरी। अतः बात तलाक़ तक आ पहुंची। एक अन्य घटना में वकील ने बताया, पति ने बाथरूम का पर्दा लगाने में मदद नहीं की तो पत्नी तलाक़ लेने के लिए अदालत पहुंच गई। ग्रेट ब्रिटेन की एक ग्रेट महिला ने अपने पति को इसलिए तलाक़ दे दिया कि वह हमेशा टूथपेस्ट को खुला छोड़ देता था! एक और सत्य घटना सुनिये। एक वकील ने कहा, एक बार मेरे पास एक व्यक्ति तलाक़ लेने इसलिए आया क्योंकि उसकी पत्नी सात बरसों से हर रोज सुबह उससे एक ही बात पूछती थी—कॉफी कैसे लेंगे? इसमें तलाक़ लेने की क्या बात थी? कह देता जैसे रोज़ाना कॉफ़ी बनती हो वैसे ही लेंगे? अजीबो-गरीब तलाक़ का एक क़िस्सा कुछ यूँ घटा। जिसे कोरोलेन नाम के एक वकील ने बताया, एक महिला इसलिए तलाक़ की अर्जी डालने आई क्योंकि उसका पति अपनी माँ को अपने हनीमून पर भी साथ ले जाने को कह रहा था। वो अपनी मां से दूर नहीं रह सकता था।
अंत में पढ़ने वालों से उम्मीद करता हूँ कि इस हास्य-व्यंग्य से भरपूर आलेख के माध्यम से पति-पत्नी दोनों जागरूक व समझदार बनेंगे तथा प्यार-प्रेम से रहेंगे। मार-पीट से कुछ हासिल नहीं होता। आप लोग भारतीय स्त्री-पुरुष हो, जो विवाह के समय क़सम खाते हो कि, ‘सात जन्मों तक पति-पत्नी बनके रहेंगे।’ आप लोग विदेशियों की तरह नसमझ नहीं हो, जो छोटी-छोटी बातों में तलाक़ ले लेते हैं। मैं तो पचासियों दफ़ा अस्पताल में भर्ती हो आया, मगर पत्नी को प्यार करना, रोज़ उसके प्रवचन सुनना, कभी बन्द नहीं किया। अपनी धर्मपत्नी की पिटाई से ही अनुभव पाकर शा’इर अकबर इलाहबादी ने ये शेर क्या खूब कहा है—
हम आह भी करते हैं, तो हो जाते हैं बदनाम
वो क़त्ल भी करते हैं, तो चर्चा नहीं होता
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