पत्थर
पत्थर
*****
किरचें बन दिल बिखर गया था,
मन भीतर तक सिंहर गया था।
नैन बने थे सावन भादों ,
कितना आलम गुजर गया था।
तब आये तुम प्यार जताने,
जख्मों को मेरे सहलाने।
अन्तर मन का बोझ उठाकर,
बात लगे अपनी समझाने।
खूब तपाया अंगारों पर ,
मार हथौड़े टंकारों पर।
भीतर बाहर उलट पुलट कर,
ध्यान लगाया झंकारों पर।
आगे पीछे ऊपर नीचे,
परखा तुमने पूरा जी से ।
कड़वा जहर गमों का देकर,
कर डाले सब कोने रीते।
पत्थर से पारस कर डाला ,
अमृत से भर दी मधुशाला।
अंह का बीज मिटाकर मन से,
एक पिलाया जाम निराला।
हृदय पर तू राज करे है,
मन मन्दिर में बास करे है।
पाकर तेरी रहमत ‘माही’ ,
खुद ही ख़ुद से बात करे है।
© डॉ० प्रतिभा ‘माही’