पत्थर को भगवान बना देते हैं
माटी के भी दाम बना लेते हैं
पत्थर को भगवान बना देते हैं
बाजारों में बिकने की खातिर
नकली वह मुस्कान बना लेते हैं ।
न मुमकिन जिन कद तक जाना
उसके झूठे इल्जाम बना देते हैं
मंजिल को जाए , न जाए रास्ता
हर मंजिल के पैगाम बना लेते है।
दुख ,दर्द ,मुफलिसी की दवा यही
जाम से मदहोश शाम बना लेते है
है खुशामद में माहिर लोग इतने
हर हालातों मै काम बना लेते है ।
दिन भर करते बुरे काम और
फिर हाथ पर राम बना लेते हैं ।
राहत ए मुफलिसी का दौर है
पर्दे के पीछे बात कुछ और है
सब कुछ बाटो चुनावी मोहोल मैं
क्या-क्या करके नाम बना लेते हैं।
माटी के भी दाम बना लेते हैं
पत्थर को भगवान बना देते हैं
बाजारों में बिकने की खातिर
नकली वह मुस्कान बना लेते हैं।
✍️कवि दीपक सरल