पत्थर के इंसान
हम सनम तैराक हैं दर्द-ए-समंदर के
बिना तिनके के सहारे है पाई मंजिल।
सोचकर सूखा हुआ पतझड़ का पत्ता मुझको
रौंदते-कुचलते बढ़ते गए, यार बहुत हैं संगदिल।
झेले हैं खूब ही घनघोर आंधी-तूफान-वर्षा
यूंही न मेरे भाव, सर्द-शुष्क बियाबां से हैं खड़े।
संघर्षो की इस आग में, हुए यूं ही नहीं पत्थर इंसां
कामयाबी भी न मिली और थपेड़े भी सहने पड़े।
लेकर निकले हैं कांधों पर,ये खुद अपनी लाशें
हशर् सबका ही यही होगा, फिक्र चिंता न करें।
बेईमानों से भरी हुई है ये दुनिया नीलम
खामखां महफ़िल में ,इमां की बातें न करें।
नीलम शर्मा