पत्थर की बाँसुरी
लोग कहते है कि
पत्थरदिल कभी रोते नही
कभी पहाड़ों से
गिरते झरनों को तुमने
कभी देखा क्यो नहीं ?
वृक्षों के बारे में एक
आम राय है ये कि
ये कभी बोलते ही नहीं
उनकी बीच से जब
हवा सर-सर निकलती है
उस आवाज को शायद
पहचानते ही नही।
कहते है हवा हमे
दिखाई क्यो नही देती ?
कभी बंद फूले गुब्बारों
को तुम देखते क्यो नही ?
वारि के आकार का तो
हमें आज तक
पता ही नही
जिसमे उसे रख दो
पकड़ लेता आकार वही।
आकाश की परिधि
का भी हमे आज
तक पता नही चला
कभी क्षितिज के
उस पार तो जाकर देखो।
निर्मेष ऐसी
अनेक आशंकाओं का
नाम जीवन है
पत्थर की बांसुरी का
भी हाल कुछ
ऐसा ही गहन है।
निर्मेष