पत्थर की अभिलाषा
राह पर पड़े पत्थर ने सोचा इक दिन यह भी
क्या जीवन है ?
नित प्रतिदिन ठोकरें
खाता फिरता हूं,
दिशाहीन मैं इधर-उधर लुढ़कता टूटता
बिखरता रहता हूं,
हेय दृष्टि का पात्र मैं,
नही दया का पात्र अंशमात्र मैं,
मै कठोरता उपमा धारक,
बुरे भाव व्यक्त परिभाषित कारक,
मैं स्पंदनहीन सही पर निरर्थक नहीं
मेरा अस्तित्व बेकार,
सार्थक प्रयोग पर निर्भर मेरा जीवन जो
करे मुझे साकार,
कुछ आकांक्षाएं, कुछ अभिलाषाएं हैं मेरी
जिनसे हो सार्थक मेरा जीवन इस संसार,
बनूँ किसी विद्यालय की नींव का पत्थर जो
ज्ञान का करे प्रसार,
या बनूँ उस पुल का पत्थर का जो जटिल
आवागमन का करे निस्तार,
या बनूँ किसी शिल्पकार की कलाकृति जिसका
जग सम्मान करे,
नहीं लालसा हो जाऊँ प्रतिष्ठित किसी मंदिर में जहां सब मेरा सम्मान करें,
अभिलाषा मेरी बन सकूं
वीर शहीदों के स्मारक का एक पत्थर
जिनका राष्ट्र् सम्मान करे।