पति गये परदेश
गये पति परदेश सखी री कब तक पन्थ निहारु।
मेरे इस मन के आंगन को कब तक रोज़ बुहारू।
इस तन के तान तम्बूरे के भी नित ही तार उतारू।
भरे भाव भरपूर जिया में कब तक उन्हें सम्भारू।
कहाँ कबूतर रहे आज और चिट्ठी तार पुरानी बातें।
गया जमाना सतयुग वाला जब लम्बी होती रातें।
आज हाथ में मोबाईल है पल पल वो नजरातें।
ऐसे में तन वन्हि धधके सावन सहे न जाते।
खूब कमाई करते साजन कंचन बहुत पठाते।
तोहफे जम्फर साड़ी गाड़ी जाने कितनी सौगाते।
समय समय पर मेरे खातिर रहते वो भिजवाते।
सब कुछ मिलता मुझे यार बस वो नही आपाते।
ऐसे में फिर मै इतराती पर समझ नही कुछ अाती।
कभी कभी तो क्या बोलूं री मति मेरी मारी जाती।
सही न जाती तन की पीड़ा जब यादे बहुत सताती।
आग बुझाऊ मन समझाऊ पर कर कुछ नही पाती।
जी करता है जीवन जो है इसको पूरा जी पाऊं।
थोथे आदर्शो को छोडूँ पूरा मौज मनाऊं।
किया नही जो कभी काम भी वो भी मै कर जाऊं।
पर सोच सोच बहुतेरी बातें मन ही मन पछताऊ।
मधु गौतम