पतासी काकी
” पतासी काकी ”
(लघुकथा)
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कहने को तो जमीन-जायदाद ,आलिशान घर और गाय-भैंसें सभी थी पतासी काकी के पास | लेकिन ! एक ही कमी खलती थी उसे , कि उसके कोई लड़का नहीं था ! वैसे तीन लड़कियाँ थी जो अपने-अपने घर जा चुकी थी | बेटा ही अर्थी को कंधा देता है ! वहीं मुक्ति-दाता होता है ! वही मोक्ष दिलाता है ….ऐसी धारणा के चलते पतासी काकी ने भी एक बेटा गोद ले लिया था | वह उसे अपने सगे बेटे से बढ़कर मानती थी और उसके सभी बच्चों का लालन -पालन बड़े ही लाड़-प्यार से किया ! समय के साथ बच्चे बड़े हुए तो पतासी की जमीन का नामान्तरण उन्होंने अपने नाम करवाकर उसे एक कोठरी तक सीमित कर दिया | उसके लिए रोटियों के भी लाले पड़ गये | वह जब भी कुछ खाने को माँगती तो बहू के हाथों की खुजली मिटाने का माध्यम बनकर रह जाती और फिर पानी पीकर ही अपनी किस्मत को कोसती हुई अकेलेपन के आगोश में चली जाती | इस अकेलेपन को छोड़कर उसका कोई सहारा भी नहीं बचा था, जो कि उसके दर्द को कभी समझ पाया हो ! उसका अकेलापन ही उसका हमदर्द बनकर रह गया था | वह रोज-रोज प्रताड़ना सहती और बहूरानी के ताने भी सुनती रहती | एक दिन तो हद ही हो गई ! जब बहू और पोतों ने उसे घर से निकाल दिया !!! आधी रात का समय ! अमावस्या की काली रात ! फिर भी वह हिम्मत करके चल पड़ी अपनी बेटी के पास ! ना कोई गाड़ी ना कोई राही ! बस ! अपने उसी अकेलेपन के साथ चल पड़ी थी पैदल ही | भोर हुए पहुँची तो कुछ नहीं बताया उसने ! बस ! झुर्रियों से लदे चेहरे पर मुस्कान लाते हुई बोली – मन हो रहा था….. सभी से मिलने का ! तो आ गई !!
कुछ दिन वह आराम से रही | बेटी ने अच्छी तरह सेवा-सुश्रुषा की ,कोई भी कमी नहीं रहने दी पतासी काकी को | पर ! उसका अकेलापन और विश्वासघात दोनों मिलकर उसके मानस का नित्य भक्षण करने लगे और एक दिन रात को पलंग पर सोई की सोई रह गई || उसके प्राण-पखेरू नीड़ को छोड़कर जा चुके थे ! पतासी काकी की बेटी को कुछ भी पता नहीं चल पाया कि आखिर हुआ क्या ? वह उसके पार्थिव शरीर को लेकर भाई के घर गई और भाई ने उसकी शव-यात्रा पूरे गाजे-बाजे के साथ पूरी की और अंतिम संस्कार कर दिया | वह जीते जी तो उसे नहीं खिला सका ? लेकिन ! अब आने वाले श्राद्ध पक्ष में उसके नाम का भोग कौओं को खिलाएगा ,ताकि पतासी काकी की आत्मा हलवा और खीर खाकर तृप्त हो सके !!
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— डॉ० प्रदीप कुमार “दीप”