पतझड़ से झड़ते अरमान
**पतझड़ से झड़ते अरमान**
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पतझड़ से झड़ते अरमान हैं,
बिक चुका जीने का सामान हैं।
दिखावा बना देता कर्ज़दार है,
ऊँची दुकान फीका पकवान है।
दुख का कोई भी नहीं है साथी,
वक्त भी नहीं होता मेहरबान है।
भर-भर ख़जाने हो रहा पागल,
दो दिन का जग में मेहमान है।
मनसीरत ज़ख्म कभी न भरते,
चोटों के शेष रहते निशान हैं।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)