पतझर होते पथ की
मैं देखा पतझर होते पथ की
चहुंओर दिखा राख – सी मैली
ऊपर – ऊपर छोटी किरणें भी
भू तक नहीं पहुंच रही थी मानो
प्रत्याशा में थे तस्वीर यहाँ
जैसे तृष्णा हो रवि भोर सन्देश
कहीं दूर से दिखा आभामण्डल
क्या ये थे पृथ्वी कफ़न ?
इसकी क्रन्दन कौन सुनें ?
दूर लय तो सज रही चितवन !
कोई मेनका स्वर में विकल है
तन – मन में खो रहे सुर निस्पन्दन
पन्थ चहुंओर चलना एक कान्ति भयंक
भव चला मैं नहीं यह तो स्वं लय गति
प्रस्तर खड़ा चल – चल दिवस के द्वन्द
कवित्त बना छन्द भी स्वेद था वो अलंकृत
मानो सतत् चला वह दिव्य ज्योति सकल पखार
लौट दिव नग निर्मल करें पद् चरण दे मृदंग
घन – घन में थी वो यौवन, अब वो कहाँ ?
घनघोर कहर बिछती अब कौन इसे रोकें
जलती लौं बढ़ती राख यह दीया किसे हार
रन्ध्र – रन्ध्र भी ढ़क गयी खोजूँ क्यों इसे मैं ?
वर्ण शब्द में दूष है यह महक किस पंक की
पद् के पद् में व्याल छिपा अमिय ढ़ूंढ़ू कहाँ प्रिय ?
स्वर रचा मनु नहीं , मनु है वो स्वर नहीं
तड़पन उर के किस कूप पर नीर नहीं अश्रु है
यह भेद मरघट को भेद , दे दे कौन निमंत्रण
शक्ति में स्यायी पलट छिपी वदन गगन में
नव कलित पथ की हम अंतिम बेला क्यों दें ?
वो कवित्त असीम चला जो तप – तप ज़हन में