पतंग
पतंग
पतंग उड़ी
गगन में चली,
कितना आंनद आया,
इतराती , इठलाती , मदमस्त,
छूना चाहता नभ की ऊंचाई को,
उम्मीदों की बंधन तोड़ना चाहता बार- बार,
दो तिनकों में मेरी श्वास ,कागज में मेरी आत्मा ।
पवन तराना में झूमा तन मन नया सहपाठियों संग
नीले गगन की रानी अब तरंग,उमंग ,आत्मविश्वास ।
तर तर उड़ी फर फर उड़ी वायु संगिनी के संग ।
बसंत ऋतु,रक्षा बंधन,मकर संक्राति पर्व
देता मुझे, नई नई खुशियां वैभव ।
अम्बर छू हास्य मुख
किसी की हाथो
डोर लगी मेरी
कटी पतंग
मैं पतंग में
पतंग।।
गौतम साव