पतंग
पतंग
देखो-देखो उड़ी पतंग,
आसमान में उड़ी पतंग।
कभी ऊपर,नीचे कभी,
दाएँ-बाएँ उड़ी पतंग।।
लगी हुई धागे की डोर,
बड़ी लंबी है इसकी छोर।
धीरे-धीरे धरती को छोड़,
आसमान में चली पतंग।
देखो-देखो उड़ी पतंग,
आसमान में उड़ी पतंग।।
जब आता संक्रांति त्यौहार,
तब खुलता इसका बाजार।
तभी आसमान में रंग बिरंगे,
पतंग भी दिखते भरमार।।
लाल पीले और काले नीले,
आसमानी भी होते इनके रंग,
देखो देखो उड़ी पतंग,
आसमान में उड़ी पतंग।।
इसके होते कोन चार,
लंबा होता निचला कोना।
पुराने हो या नये नवेले,
सबका है ये प्यारा खिलौना।
दो पतंगों की स्पर्धा में,
न जाने किसकी कटी पतंग।
देखो देखो उड़ी पतंग,
आसमान में उड़ी पतंग।।
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रचना- पूर्णतः मौलिक एवं स्वरचित
निकेश कुमार ठाकुर
गृहजिला- सुपौल
संप्रति- कटिहार (बिहार)
सं०-9534148597