*पछतावा*
लेखक – डॉ अरुण कुमार शास्त्री
शीर्षक , पछतावा
बीत रहे हैं दिन पर दिन पछतावा तो होगा ।
खाली रहा तू सारा दिन पछतावा तो होगा ।
जन्म मिला था मानव का तूने बेकार गंवाया ।
सोने जैसा बदन मिला मिट्टी बीच मिलाया ।
बचपन बीता आई जवानी अब तू करना न नादानी ।
तू कर्मवीर तू श्रम का साधक ये ही सृजन निशानी ।
कब तक रहेगा यूं ही सोता सोच –सोच कर कुछ न होगा ।
हाँथों से अपने तकदीर लिखेगा एक दिन तू तदवीर लिखेगा ।
जमाना साथ है तेरे उठ जा देखना तू अद्भुत सृजन करेगा ।
जो बीत गया सो बीत गया उस पर रुदन अब तू नहीं करेगा ।
भारत की धरती पर जन्मा जो बच्चा अग्निवीर कहाता है ।
मेहनत से अपनी वो जग में कथा नई लिख जाता है ।
यदि कूद पड़े वो रण में तो विजय सुनिश्चित कर पाता है ।
हर आपदा को अपने कौशल से वो अवसर बनाता है ।
कद में छोटा वो दिखता है पर हिम्मत में शेर समान है ।
गज जैसा बल है उसमें चील सी दृष्टि और क्षमता महान है ।
पछतावा करने से कुछ न होगा मन में हीनता भर जाएगी ।
बुद्धि कुंद हो कर विषाद से फिर निष्क्रिय हो जाएगी ।
ऐसा मानव खो देता है जीवन का उत्साह और लगन ।
चल उठ जा, चल उठ जा बीत रहें हैं दिन पर दिन ।