पग-पग पर होवे पथ प्रशस्त !
पग-पग पर होवे पथ प्रशस्त !
कंपे हिमालय जलधि डोले,
रोष की भ्रू भंगिमा में वह्नि बोले !
बहें बयारें हर सान्ध्य प्रहर ,
जीवन टकराए डगर-डगर ;
झंझावातों के लहर-लहर ;
धीर ! नहीं जाना सिहर !
मरुभूमि के तापों से खेलो,
विषमय संतापों को झेलो ,
धीर ! धन्य हृदयों को खोलो ;
दग्ध ज्वालों को पी लो !
विस्तृत होती, दृढ़ इतिहासों के बोल ;
खण्ड खण्ड हो रही भूगोल !
फटे व्योम मही अंगार खिलें ,
प्रतिपल विकट संहार मिलें ,
रवि होना चाहे सदा उदय-अस्त ,
सींचित् सभ्यता हो जावे ध्वस्त !
कंटक राहों में वीर अभ्यस्त ;
पग-पग पर करना पथ प्रशस्त !
✍? आलोक पाण्डेय