पगली
?मनोहर छंद?
ढाकती थी तन दिवानी!
मोल जीवन का न जानी!
लोग पत्थर मारते थे!
हर समय दुत्कारते थे!
रूप नारी का बनाया!
बोध तन का आ न पाया!
लूट बैठा इक लुटेरा!
नर्क का इक बीज गेरा!
माह नौ अब बीतते थे!
दाँव पशु के जीतते थे!
रूप लेता माँस सा वो!
आखरी इक साँस सा वो!
जन्म लेता जीव दिखता!
हाय दाता लेख लिखता!
दूध आँचल में भरा था!
घाव पिछला भी हरा था!
नीर नैनों में विधाता!
मोह उपजा नेह आता!
गोद में चिपका रही थी!
क्या हुआ कुछ अनकही थी!
साँस हरपल थम रही थी!
राह में अब रम रही थी!
छोड़ जाती थी दिवानी
एक पगली की कहानी!
अनन्या “श्री”