“ पगडंडी का बालक ”
गाँव की पगडंडी से गुजरते हुए एक बालक को हमने देखा,
नन्हें हाथों में बस्ता, उसकी आँखों में आशा की किरणें देखा I
उसके पेट में भूख व हाथ भी था खाली ,
मन बेचैन पर उसने संघर्षो से हार न मानी ,
“विधा” से भूख मिटाया, संयम की भरी थाली,
प्रण किया लक्ष्य प्राप्ति पर ही मनाऊंगा दिवाली I
गाँव की पगडंडी से गुजरते हुए एक बालक को देखा,
बालक ने माँ की ममता व बूढ़े पिता को कर्जो से दबे देखा I
राह में कांटे पर निकला व बिल्कुल अकेला ,
सबको पीछे छोड़ दिया जिनके साथ पढ़ा-खेला ,
“ज्ञान” हासिल कर बन गया वो सबसे अलबेला ,
“राज” खो न जाये कहीं, विशाल है जगत का मेला I
गाँव की पगडंडी से गुजरते हुए एक बालक को देखा,
राह के साथियों को आशा भरी नज़रों से निहारते देखा I
विश्वास है वह विजय पताका फयरायेगा ,
अपनों का दर्द उसे हमेशा ही याद आयेगा,
पगडंडी के हर एक राही को सीने से लगायेगा ,
“सूरज” बनकर दुनिया को रोशनी दिखायेगा I
गाँव की पगडंडी से गुजरते हुए एक बालक को देखा,
लक्ष्य प्राप्ति की तमन्ना व अपनों से उसका प्यार देखा I
“ माँ ” का बालक से एक अदभुत सवाल ,
क्या तूने परिश्रम किया अपने लिए लाल ?
नहीं i तुझे तोड़नी है “निरक्षरता की दीवाल”,
तभी हर गली-गाँव का बच्चा होगा खुशहाल I
उपरोक्त कविता मेरे देश के लाखों अभावग्रस्त बालकों को समर्पित है जो संघर्षों से हार न मानते हुए अपनी मंजिल प्राप्त करते है I
देशराज “राज”
कानपुर