पगडंडियां
पगडंडियां
रात चांदनी
गीत मधुर थे
नैनों से नैन मिले थे
पर मूक अधर थे
यूँ ही जुड़ गई थी
मन की पगडंडियां
मन की रुत बदली
बसंत बहार ने मुख मोड़ा
किसी मोड़ पर जा छोड़ा
उस वीरान शहर में
उलझ गई थी
मन की पगडंडियां
सुख को तोला
रचा तराजू
सुख की बंदरबांट करी
खिसियाई बिल्ली सी
नोंच खसोट गई
मन की पगडंडियां
पाला पोसा
अरमान किये थे पूरे
उस अम्मा को छोड़ चले थे
हाय अकेला
तपे तवे पर
ज्यूँ करवट लेती
मन की पगडंडियां