*पक्षियो की स्वर्णिम गाथा*
पंख को फङफङाए ।
हवाओ को चीरे ।
चले जा रहा जो।
आसमाँ में उङे ।
खेत-खलिहान ।
दरिया,मकान ।
ताल-तलैया पर नजरे गङाए ।
खाने को जो ढूंढ रहे कीड़े ।
गिद्ध,चील,बाज,शुतुरमुर्ग, उकाब।
पक्षी ये बङे शातिर ।
पलक झपकते करते शिकार ।
दृष्टि इनकी द्रुत अपार ।
प्राकृतिक संतुलन को रखते जो बरकरार ।
चोंच टेढी-सीधी किसी की ।
खाने का अलग-अलग प्रकार ।
रूप,रंग,आकार है भिन्न ।
तौर-तरीके इनके नवीन ।
पक्षी हमें बहुत कुछ सीखाते।
पंख से नही हौसलो से उङान होते बताते ।
काकभुशुण्डि-गरूण संवाद आत्मज्ञान से जोड़े जाते ।
क्रौंच पक्षी के जोड़े को क्रीडा करते देख ।
बाल्मीकि तमसा नीर-तीर स्नान करत अति हर्ष निरेख ।
सहसा निषाद के एक बाण से ।
क्रौंच नर हो लहुलुहान सिधार गया परलोक ।
सह न सकी इस शोक को मादा क्रौंच ।
अपने मृत पति को देख ।
प्राण भी उसने त्यागे ।
तङपकर दिल मे लिए क्लेश ।
तमसा-नीर उठाए हाथ में ।
जुबान पर मां शारदे साथ में ।
निकला बाल्मीकि के मुख से ।
सृष्टि का पहला वो दैवीय श्लोक ।
हरषे सुन नर,मुनि, देव , कोक ।
बहेलिए के इस कुकृत्य के लिए दिया उन्होने शाप ।
हुआ अंतिम वैराग्य उन्हे जब ।
क्रौंच की पीड़ा सकी न दब।
रच डाले बाल्मीकि रामायण महाकाव्य तब ।
ये तो एक पक्षी की ही देन थी ।
महर्षि बाल्मीकि की ज्ञान रेणु जो थी ।
अग्नि, इंद्रदेव के द्वारा ली गई एक परीक्षा ।
महाराज शिबि के न्याय की सुन रखी थी महिमा ।
बन गए अग्नि देव कबूतर ।
बाज बने इंद्रदेव ।
झपटा बाज कबूतर पर ।
हो आतुर करने को शिकार ।
कबूतर भागी जान बचाने को ।
बाज से पीछा छुङाने को ।
गई महाराज शिबि शरण को ।
महाराज मेरी रक्षा करो ।
बाज लगा मुझे मारण को ।
देख न सके महाराज शिबि इस दुःख, दारूण को ।
बाज ने बोला महाराज ।
मैं हूं कई दिनो से भूखा ।
मांस का एक टुकड़ा तक न चीखा ।
है मेरा आहार शिकार ये ।
इसको खाने को दे दो मुझे ।
कबूतर चिल्लायी महाराज की ओर देख ।
महाराज मेरी रक्षा करो,रक्षा करो।
महाराज शिबि के सामने थी परिस्थिति विकट ।
सोचे महाराज कैसा है ये धर्मसंकट ।
महाराज ने तब लेकर फैसला ।
कहा हे! बाज भूख से तुम्हारी जा रही आवाज ।
मैं तुम्हारी भूख अवश्य मिटाऊंगा।
मैं तुम्हे भरपेट खिलाऊंगा ।
कबूतर के बदले मैं खाने को दूंगा तुम्हे अपना मांस ।
अवश्य बूझेगी तुम्हारी प्यास ।
महाराज ने तराजू मंगवायी ।
दरबार में सामने टंगवाई ।
काट अपनी भुजा को ।
तराजू के पलङे पर कबूतर जितना रखी मांस ।
पर हुआ न कांटा टस से मस ।
मन में जन्मी अभिलाष।
अपने इक-इक अंग को काटा ।
कटे अंग हो लहुलुहान ।
तेजी से थे रहे उछल ।
महाराज की जान जा रही थी निकल ।
पर कांटा हिलने को था ही नही सफल ।
फिर खुद बैठ गए ।
महाराज उस तराजू पर ।
तब जाकर उठी कबूतर ।
पलङा एक समान था ऊपर ।
देख महाराज के इस न्याय को ।
आए अग्नि, इन्द्र अपने स्वरूप को ।
सशरीर कर महाराज शिबि को ।
कहा धन्य हो इस न्यायवीर को ।
शत – शत् नमन इस धीर को ।
कह अग्नि -इन्द्र चले अपने धाम को ।
गरुण जटायु पक्षी को कौन-कैसे भूलाए ।
मां सीता की रक्षा करते ।
राम -नाम लें स्वर्ग सिधाए ।
मां सीता का पता बताए ।
रावण का नाश जताए ।
किए अंत्येष्टि राम-लखन ।
पिता -सा मान बढाए ।
सम्पाती अग्रज जटायु ।
बैठा सिंधु तीर पंख जलाए ।
अंगद,हनुमान, नल-नील, जामवंत।
सीता खोज में हो विफल ।
जब अपना करने जा रहे थे अंत ।
हंसा सम्पाती खिल-खिलाकर ।
मिला आहार आज मुझे भरपेट ।
कहे हनुमान आए काम ।
हम एक पक्षी के ।
कर ले कुछ काम ही नेक ।
गरूण जटायु का राम जी पर है उपकार ।
सुन सम्पाती अपने अनुज की पुकार ।
पूछा उसने सारा समाचार ।
फिर कहा गिद्ध दृष्टि अपार ।
मां सीता बैठी ।
अशोक तले लंका में ।
डूबी किसी सोच में करूणहार ।
पक्षियो की पहुंच हर समय के द्वार ।
राम-लखन नागपाश को गरुण ने कांटा ।
बचाया जाने से उनको मृत्यु द्वार।
गरुण को जन्मा उसी क्षण अंहकार ।
आज खुद विधाता न बच सके हमने किया उबरनहार ।
पक्षियो की गाथा विस्तृत है वर्णन।
काग के भाग बङी सजनी हरि हाथ से ले गयो माखन रोटी ।
समझ ले जो इस कविता सार को।
हंस-सा दूध-पानी निकार को ।
बन जाए वो प्रबुद्ध ।
पा जावे पार इस माया संसार को।
स्वाति नक्षत्र बूंद को तरसे ।
स्वाति पक्षी पीने को तङपे ।
पीने को सलिल उस मुहूर्त की ।
स्वाति -चातक जल समान जीवन रस की ।
तोते की मीठू ।
कोयल की कुक्कू ।
पपीहे की पीहू ।
गौरैये की चींचू ।
मोर की केकी ।
बगुले की शेखी ।
मन हर्षे ये हर पल ।
मनोरम छटा इनकी देखी ।
घास,पत्ती, चुनकर तिनका ।
बनाते ये अपना घोंसला।
छत केक छज्जे पर ।
खिड़की के ऊपर ।
पेङ की डाली पर ।
संकेत भी देते ये होनी -अनहोनी के ।
छोङ जाते उसका घर पक्षी ।
कुछ अपशकुन होने पर ।
घर में चमगादङ आते बुरी सांया होने पर ।
मरखोया पक्षी बोल जो देती ।
बङे बुजुर्ग कहते ये ठीक नही ।
ऐसा कहते वो विकट परिस्थिति होने पर ।
चुगती दाने छत पर।
चावल,कीड़े खाती निगल कर ।
पिजङे मे कर कैद तोते,रंग -बिरंगी पक्षी रखते ।
क्योंकि उन्हे अपनी शान शोभा बढाने होते रौनक को दिखाने होते।
देख इस दृश्य को अपने आजादी के संदर्भ में सोचे ।
करना बेजुबान पखेरू के शिकार।
अपराध है ये कहती संविधान ।
इसकी भी कठोर सजा है ।
पक्षी को मारना कानूनन जुर्म है ।
राष्ट्रीय पक्षी मोर के लिए दण्ड कठोर है ।
विलुप्त हो गए गिद्ध ।
दिखते कहां अब चील ।
बनी रही अगर ऐसे ही हालत ।
भरेगी रेड डाटा बुक ।
सब जाएगा मिट्टी में मिल ।
डाक्टर सलीम अली पक्षी के जनक ।
नाचते थे जो पक्षी राग पर तुनक।
अमवा पे बैठी कोयलिया जब गाए ।
कनवा अमृत रस से सराबोर हो जाए ।
आओ हम करे यह संकल्प ।
प्रकृति के सूनेपन को हटाए ।
पक्षियो का हो कलरव ।
हर विहान नई धुन गाए ।
☆☆RJ Anand Prajapati ☆☆