पकड़
लघुकथा
शीर्षक – पकड़
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सड़क पर हो रहे तमाशे ने मुझे अपनी और आकर्षित किया, तो मै उस ओर खिंचता हुआ अनायास ही चला गया l खेल तमाशा, दस बारह साल की एक लड़की दिखा रही थी l कई एक करतब दिखाने के बाद लड़की, दो खंबो के बीच बंधी रस्सी पर चलने लगी फिर अचानक से डांस करने लगी l रस्सी पर उसकी पकड़ इतनी मजबूत थी कि उसकी आँखो में डर का नामो निशान तक नहीं था l
यह दृश्य देखकर मुझे खुद से नफरत होने लगी l एक यह लड़की है जिसे सही से जिंदगी के मायने भी नहीं मालूम, लेकिन फिर भी, पकड़ कितनी मजबूत है जिंदगी पर…काम के प्रति ईमानदारी, जिंदगी के प्रति लगाव और सबसे बड़ी, चेहरे पर एक मोहिनी मुस्कान l और एक मै हूँ पढ़ा लिखा, समझदार, जिंदगी के पल पल से बाखिफ…मेरे हाथ से कब जिंदगी फिसलती चली गई पता ही नहीं चला l बेरोजगारी, गृहस्थी का भार, रोज रोज के ताने से भागकर आत्महत्या करने चला था ,,,,,, क्या यही पकड़ होती है जिंदगी पर? क्या मै इस लड़की सा भी नहीं? जो इतना तुच्छ काम करने चला था….. छि ,,,, नहीं.. नहीं.. मैं इतना गिरा हुआ नहीं हो सकता l जिंदगी, इस रस्सी की तरह कठिन जरूर है, मैं भी चल सकता हूं l
तभी तालियों की गड़गडाहट से मेरी तन्द्रा टूटी… जेब से तुड़ा मुड़ा दस का नोट निकालकर उस लड़की को दिया और पापा के कारखाने की ओर कदम बड़ा दिए…. एक नई मंजिल के लिए l.
राघव दुबे
इटावा ( उo प्रo)
8439401034