पंडित जी
आज भी जब मैं संधि पढती हूँ तो क्षण मात्र के लिए ही सही लेकिन पंडी जी(शुद्ध उच्चारण-पण्डित जी,लेकिन बचपन में अपने गांव के स्कूल में हम उन्हें पंडी जी ही बुलाते थे)की वो छवि एक बार अवश्य याद आ जाती है।लंबी कद-काठी,बड़ी बड़ी सफेद मूँछे,बड़ी-बड़ी डरावनी आँखें,जो मार खाते वक्त और भी डरावनी लगती थीं और ऊपर से उनकी बुलंद आवाज कि हमारे छोटे से स्कूल के किसी भी कोने में वो बोलें तो आवाज पूरे स्कूल में गूंज जाती थी।पढाई के मामले में बेहद सख्त,70 की उम्र होने के बावजूद एक दिन की भी छुट्टी नहीं और हमेशा समय पर हाजिर और मार ,तो मुझे याद ही नहीं कि उन्होंने कभी हथेली पर मारा हो,हमेशा हाथ उल्टा करवा के मारते थे।मार खाते वक्त सबके चेहरे के अलग-अलग अंदाज देखने लायक होते थे,जिसे याद करके आज भी चेहरे पर हँसी आ ही जाती है।लेकिन तब हम लोगों में से कोई हँसता नहीं था क्योंकि मार खाने वालों की कतार में लगभग हम सभी होते थे।उनकी एक और दिलचस्प खासियत यह थी कि वो किसी भी विद्यार्थी को उसके नाम से नहीं वरन् उसके पापा या बाबा(दादा जी)के नाम से पुकारते थे उदाहरण के लिए वो मुझे हमेशा या तो ‘विनोदवा वाली’या ‘बिरबहदुरा वाली’ही कह कर बुलाते थे।
एक बार अर्धवार्षिक परीक्षा में उन्होंने एक प्रश्न दिया कि ‘नौ-दो ग्यारह होना’ का अर्थ बताते हुए उसका वाक्य प्रयोग करें।मेरी एक सहपाठी जिसके पिता जी का नाम ‘प्रेम जयसवाल’था,ने उसका वाक्य प्रयोग किया था-चोर को देखकर पुलिस नौ-दो ग्यारह हो गया।जब कक्षा में उत्तर-पुस्तिका दिखाई जाने लगी तब पंडी जी ने मेरी उस दोस्त को अपने पास बुलाया और डाँटने तथा समझाने की मिश्रित मुद्रा में बोले-’प्रेम के देख के तू भगबू कि तोहके देख के प्रेमे भाग जइहन’……उसके बाद तो हम सभी अपने अच्छे बुरे प्राप्तांक भूलकर ठहाके लगाने लगे।
परीक्षा से जुड़ी एक और घटना याद आती है।पंडी जी हमें संस्कृत और हिंदी पढाया करते थे।संस्कृत के पेपर में उन्होंने पाँच फलों के नाम लिखने को दिया था।लेकिन मुझे पांच तो छोड़िए एक भी फल के नाम संस्कृत में नहीं याद थे और त्रासदी तो यह थी कि जिस कमरे में मैं थी,उस कमरे के किसी भी विद्यार्थी को नहीं याद था।हम सब काफी चिंतित थे कि ५० में से ५ अंक तो ऐसे ही चले गए।लेकिन मैं भी हार मानने वालों में से नहीं थी।मैंने सोचा संस्कृत ना सही अंग्रेजी में तो याद है ना पांच फल के नाम तो क्यों ना अंग्रेजी में ही लिख दिया जाए, पंडी जी ५न सही २ अंक तो देंगें।फिर क्या था मैंने ये तरकीब सबको बताई और हम सबने उत्तर पुस्तिका में संस्कृत के स्थान पर अंग्रेजी में पांच फलों के नाम लिख डाले।
पिछले साल रक्षाबंधन में भैया और दीदी जब घर आए थे तो उन्होंने पंडी जी से मिलने की इच्छा जताई।चूंकि हम तीनों भाई बहन उनके विद्यार्थी रहें हैं तो हम तीनों का ही उनसे आज भी बहुत लगाव है।जब हम उनके घर पहुंचे तो उनके बेटे और बहू ने हमारा स्वागत किया और फिर उनके बेटे पंडी जी को बुलाने चले गए।मेरे मन में पंडी जी की वही छवि बार-बार उभर रही थी जो बचपन में देखी थी।आज १० साल के बाद उनसे मिलने और उन्हें देखने का अवसर मिला था इसलिए मैं काफी उत्सुक थी।लेकिन जैसे ही मेरी नजर पंडी जी पर पड़ी मेरी आँखों से न चाहते हुए भी आँसू निकलने लगे और मैं १५-२० मिनट तक रोती रही।पंडी जी बेहद कमजोर दिख रहे थे ,आवाज की वो बुलंदी कहीं खो गयी थी ।मेरी आँखें पंडी जी को साक्षात देख रही थीं लेकिन मेरा अंतर्मन जिसमें पंडी जी की पहले वाली छवि थी,पंडी जी की इस वर्तमान छवि को स्वीकार करने को तैयार न था।उनसे मिलने के लिए मैं जितनी ही खुश थी,उनसे मिलने के बाद मैं उतनी ही दुखी हो गई थी।
अब मेरे मन में पंडी जी की दो छवियाँ हैं लेकिन मैं बाद वाली छवि को कभी याद नहीं करना चाहती और जब कभी वो छवि याद आ जाती है,मेरी आँखें बिना नम हुए नहीं रह पातीं।