पंछी उड चले
अब शाम होने को आई है,
पंछी उड़ चले हैं बसेरों में।
चलो हम भी तो लौट चलें
अब अपने-अपने डेरों में।
रोज की इस भागादौड़ में
हम सब कुछ ही भूल गए।
जल्दबाजी के चलते अपने
हम तोड़ बहुत से रूल गए।
ना जाने कब बीते हुए दिन
वापस आएं या ना आएं।
क्या पता वो पुरानी रौनक
बागों में छाए या ना छाए।
अब पहले वाले दिन न रहे
सब इक्ट्ठे बैठकर हंसते थे।
नफरत कहीं नाम नही था
सब प्यार-प्रेम से बस्ते थे।
अब उंची-ऊँची दीवारों में
सब कुछ नजरबंद हो गया।
पहले की भांती सांसों का
चलना भी अब मंद हो गया।
पक्षियों की उड़ानों पर भी
बड़ी पांबदी लग गई है अब।
माया के इस लालच में लोग
बड़े ही स्वार्थी हो गए हैं सब।
देखके इस संसार की तस्वीर
मच गई मेरे अंदर खलबली।
सब कुछ ही तो बदल गया है
यह पश्चिमी ऐसी हवा चली।
डली हुई है अब तो सबके
पांव में सल्तनत की बेड़ी।
आजकल की युवा नस्ल
काफी हो चली है नशेड़ी।
पैसे के चक्कर में गुम हुए
अब तो सारे ही रिश्ते-नाते।
पड़ोसी का आजकल कोई
हालचाल पूछने नही जाते।
शीला गहलावत सीरत
चण्डीगढ़, हरियाणा