न रोटी, न कपड़ा, न कोई मकाँ…..
लगे आजकल हर कोई मेहरबाँ है,
सियासत की ऐसी अजब दास्ताँ है।।
किसी रात फुटपाथ पर जा के देखो,
न रोटी,न कपड़ा,न कोई मकाँ है।।
गया ईद-होली पे मिलना गले से,
ज़रा सोचिए आज हम सब कहाँ हैं।।
तरक्की के दावे जो फ़रमा रहे हो,
तिजारत की मंडी में उसका निशाँ है।।
सभी को पड़ी है गरज़ सिर्फ़ अपनी,
किसे फ़िक्र अब दूसरों की यहाँ है।।
हुई ख़ाक जबसे मुहब्बत की बस्ती,
जिधर देखिए बस धुआँ ही धुआँ है।।
अगर “अश्क” है हाशिये पर भी तो क्या?
नहीं में न उसकी, न हाँ में ही हाँ है।।
©अश्क चिरैयाकोटी
दि०:20/02/2022