न दुआएं असर करती दिखी
न दुआएं असर करती दिखी अब बुजुर्गों की
न चाहत रही तो किसी को पुराने तजुर्बों की
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नहीं रहीं जरुरत छाया फलों से लदें पेड़ों की
घरों की क्यारियों में पंक्तियां कंटीले पेड़ों की
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चहचहाती चिड़ियां हुई बातें बीते जमाने की
नहीं कोई सोच फुर्सत अब इनको बचाने की
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पत्थरों के शहर में तो होड़ पत्थर उगाने की
ख्वाहिश हर किसी को पत्थरों से मारने की
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हिम्मत नहीं बाकी रही सड़कों पर जाने की
कोई न देता दिलासा जीवित लौट आने की
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तेजी से दूभर होती चली गई राह जीने की
स्वयं को मैला कर लिया गंगा भी मैली की
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अदांज ऐसा नेकी कर दरिया में डालने की
निगाहें रहे हरदम पीठ में खंजर चलाने की
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कुछ दाद तो देनी पड़ेगी उनके निशाने की
तीर छूटे नहीं खबर तो घायल हो जाने की
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उन्हें बड़ी जल्दी पड़ी घर अपने बुलाने की
नई फैक्ट्री लगाना तो उन्हें पैसा बनाने की
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अब उनको चिंता सताएं मेरे आशियाने की
थोड़ी तरकीबें निकाले इसको उजाड़ने की
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-रामचन्द्र दीक्षित’अशोक’