न थकी हूं मैं नदी हूं
मैं इस शहर की इकलौती नदी हूं
न साल दो साल एक पूरी सदी हूं
चेहरों पर थिरकती रहती हंसी हूं
शहर की तो सबसे बड़ी खुशी हूं
***
शहर मेरे मैं इसके अन्दर बसी हूं
ममता के अटूट रिश्तें मैं फंसी हूं
भूंखी पेट तो अन्दर तक धंसी हूं
कंक्रीट की जंजीरों में तो बंधी हूं
***
मैं बनती रही शरण बेघरों की हूं
हिय भाती जगह मनचलों की हूं
चाहत का किनारा प्रेमियों की हूं
महकती मधुर बेला मिलन की हूं
***
ठहराव चहचहाते पंक्षियों की हूं
ऊंचाई उछलती मछलियों की हूं
बजती हुई घंटियां मन्दिरों की हूं
रोली पुष्प पूजा पुजारियों की हूं
***
हवा में तैरती खुशबु फूलों की हूं
सघन छाया फलदार पेड़ों की हूं
शीतलता बही हुई हवाओं की हूं
बिखरी मस्ती घोर घटाओं की हूं
***
आशाएं दुआएं जीवन भर की हूं
कहानी मुक्ति से मोक्ष तक की हूं
जुगत भूख से रोटियों तक की हूं
कथाएं जनम से मरन तक की हूं
***
हूं अनवरत बहती रही न रुकी हूं
जोर जुलुम के सामने न झुकी हूं
जंग जारी रखती अस्तित्व की हूं
न व्यथित हूं न थकी हूं मैं नदी हूं
***
रामचन्द्र दीक्षित’अशोक’