नफ़रत
दो अजनबी, मिले थे किसी मोड़ पर,
अनजान थे किस्मत से, चले थे खुद की तकदीर बनाने //
माँ~बाप से रिश्ते भुलाने, अनजान से रिश्ते बनाने,
कुछ ही दिनों मे रिश्ता गहराता चला गया //
शर्म की दास्तां.. टूटके एक कहानी बन गई,
इस गलती की मानो, एक निसानी बन गई //
फिर शुरू हुआ खेल, झूठ और फरेब का,
सच पर चढ़ाके रंग, कालिक पोतने का //
एक झूठ ने रिश्ते मे, विष घोल दिया,
लफ्जो से झूठ, आँखों से मानो सच बोल दिया //
लोग लकीर के फकीर बनने लगे,
पुराने को छोड़कर, नए से रिश्ते बनने लगे //
अबतो शक्ल क्या, नाम से भी नफ़रत होने लगी,
ज़ब सूरत से नहीं, सीरत से पहचान होने लगी //
इस जंग मे हार मुसाफिर की हुई,
शिकारी तो चला फिर शिकार मे……//
~:कविराज श्रेयस सारीवान