नज़्म — “वो”
अगर इमकान भी होता, ठिकाने लग अक़ल जाती,
न जाता ज़ानिबे क़ातिल, तो कैसे कर क़तल जाती?
न जाने क्या हुआ जाता है, मेरी सख़्त तबियत को,
कि जब ‘वो’ पास होते हैं, बिगड़ जाती, मचल जाती|
उछलने बल्लियों लगता, मिरे पहलू में दिल मेरा,
मिलाते ही नज़र उनसे, अदल जाती, बदल जाती|
कली खिलने का धोख़ा, ज़ुम्बिशे लब दे रही मुझको,
ये मेरी आदमीयत है, फिसल कर फिर सम्हल जाती|
नज़ारे उनके ज़ल्वों के, बिछे हैं आसमानों तक,
नए लगते सदा जब भी, नज़र पहले-पहल जाती|
समझ लीजे ज़ुदाई की, घड़ी का ख़्याल आते ही,
हमारी रूह तो जैसे, निकल जाती, दहल जाती|
अले ‘बलमा’ हमें तुतला के, जब ‘वो’ प्यार से कहते,
मेरी गमगीन तबियत भी, सहल जाती, बहल जाती|
बलमा = तुतलाहट में “वर्मा” का अपभ्रंश