नज़्म/जो मैं फ़कत हिंदुस्तानी होता
कितना अच्छा होता ग़र….
जो मैं परिन्दा होता
अन्दर तलक ज़िंदा होता
जो मैं जिनावर होता
जो मैं हवा होता
या कंकड़ मिट्टी का कोई
ना लगाता नाम के आगे
मैं अपनी जाति कुछ भी
ना लिखता कागज़ों में
अपना आशियां- प्रदेश मैं
ना लगाता माथे पे कभी
लम्बा सा तिलक कोई
ना हाथों पे गुदवाता
ख़ुदा का निशां कोई
ना माथे पे नमाज़ी
काला निशां करता मैं
ना ओढ़ता सर पे टोपी
ना पहनता जनेऊ सा कुछ
ना बोलता हिन्दी ,उर्दू
संस्कृत ,गुजराती ,मराठी
फ़कत गाता, बुदबुदाता
कोई प्रेम का राग हर रोज़ मैं
ठीक उन पंछियों की तरहा
जो दरख़्तों के झुरमुट में गाते हैं
खुबसूरत कर देते हैं सुबह को
अपनी जुगलबंदी लयमय से
कितना अच्छा होता ग़र……
जो मैं उड़ पाता कहीं भी,
दौड़ पाता इतना जी भरके
चारों दिशाओं में दूर तक जाता
कमाने-खाने, आबोदाने के लिए
फ़कत इक़ ही ख़ुदा होता मेरा
ना होती जाति ना कोई धरम मेरा
कभी कोई पूछता मुझसे
कि कहाँ से हो बरखुरदार?
तो झट से कह पाता
मैं फट से कह देता
हिंदुस्तानी हूँ साहब ,
मैं इक़ हिंदुस्तानी हूँ
मेरी जाति मेरा मज़हब
मेरा निशां फ़कत यही है
मैं यहीं का हूँ साहब ,
मैं इक़ हिंदुस्तानी हूँ
मैं बस हिंदुस्तानी हूँ……..
कितना अच्छा होता ग़र
जो मैं फ़कत हिंदुस्तानी होता
फ़कत हिंदुस्तानी ही होता मैं
कितना अच्छा होता ग़र……
~~अजय “अग्यार