नज़ारा – डी के निवातिया
नज़ारा
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कुछ इस तरह मुझ से किनारा कर लिया !
मेरे अपनों ने घर-बसर न्यारा कर लिया !!
समझता रहा जिन्हे ताउम्र मै खुद का हमदर्द !
फूलों से ज़ज़्बातों को उन्होंने अँगारा कर लिया !!
देखता हूँ नज़रे उठाकर तो ज़माना हँसता है !
जब से उन्होंने मेरी और इशारा कर लिया !!
अब करुँ भी उम्मीद फ़तह की, तो कैसे करूँ !
अपनों ने साथ दुश्मनो का गँवारा कर लिया !!
नहीं रही चाहत अब “धर्म” को किसी हित की !
जब आँखों में उनकी बैर का नज़ारा कर लिया !!
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डी के निवातिया