नज़र
नज़र ही है जो जैसा वो दिखाती है ।
वैसी ही सोच बनाती है और फैसले पर पहुंचाती है।
तथ्यों पर विचार करवाना उसका काम नहीं।
जैसा दिखता है वैसा ही मन में आता है।
और मन को निष्कर्ष करने के लिए बाध्य करता है।
इसमें उसका कोई दोष नहीं। दोष तो निहित संस्कार, पूर्वाग्रह और श्रवण निर्मित कल्पित भावना का है । जो व्यक्तिगत सोच के निर्माण में बाधक होता है, और गलत निर्णय का कारण बनता है।
और मन सवार होता है तथ्य हीन भीड़ की मनोवृत्ति के घोड़े पर निष्कर्ष की संभावनाओं से परे। इस बात से बेखबर कि उसका निर्णय कितना घातक हो सकता है , दूसरों के लिए ही नहीं अपितु स्वयं के लिए । और वह भी शामिल होता है उस भेड़ चाल में , बन जाता है स्वार्थी तत्वों के हाथों की कठपुतली। और फंस जाता है , उस माया चक्र में जिससे निकलना उसके लिए दुष्कर हो जाता है।