न्याय हो
हे न्याय की देवी आँखे खोल, कुछ तो बोल कुछ तो बोल
कब तक भटकेगी इक माँ यूं दर- दर बनके फटी सी ढोल,
कभी इधर से कभी उधर से हर कोई आस बँधाता है
तारीख नयी मिल जाती है फिर मन डर से घबराता है,
सोचता है व्याकुल मन हर पल फिर कोई दांव लगाएगा
कानूनी हथकंडे अपना कर फिर कोई घाव लगाएगा,
आखिर कब तक न्याय की खातिर अश्रु धार बहाएगी
अपने जख्मों पर तारीख़ो के नमक यूं कब तक पाएगी,
वर्षो न्याय की आस मे अब विश्वास भी माँ का डोल गया
“ना उसको तो फाँसी दो मुझको” हृदय बिलखता बोल गया,
दोषी अब ना बच पाएं नाज़ायज़ उनकी सिफारिश है
इन्साफ मिले अब देर न हो मेरी तो यही गुज़ारिश है ?