न्याय की देवी
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बाँधआँखों पर काली पट्टी
अंधी बनी न्याय की देवी।
न्याय तराजू हाथ की मुट्ठी,
सबूत तौलती सच्ची-झूठी।
एक हाथ तलवार दोधारी,
फिर भी बेबस बनी बेचारी।
संविधान की ओट में खड़ी,
न्याय की देवी बिलख रही।
पुलिस-थाना,कोर्ट-कचहरी,
चप्पल धिसते लम्बी चक्की।
बिना सबूत छूटते मुलजिम,
फाँसी चढ़ जाती ईमानदारी।
भ्रष्ट नेता,पुलिस – कर्मचारी,
सबके मन में लालच बेमानी।
छूटते रिश्वत दे चोर-जुआरी,
घून सी लगी है ये बिमारी।
फैली भ्रष्टाचार, चोरबाजारी,
दैत्य,नक्सली-आतंकवादी।
नित स्थिति भयानक त्रासदी,
कैसे हो इस देश की उन्नति।
पट्टी उतार देखना हुई जरूरी,
शुरू हो न्याय की नई परिपाटी।
????—लक्ष्मी सिंह ??