नौ दिन
छलने के लिए देवता ही आखिर
दैत्य बेचारे लड़ते रहे और मरते रहे
साधन करते रहे नित साधक
रचते रहे वेद ऋषि व्यापक
ज्ञान बिकता रहा स्त्री लुटती रही
छली जाती रही निहित स्वार्थों के लिए
वो हर युग में कभी इन्द्र के लिए
कभी राम के लिए आज भी निरंतर
कभी लगी दांव पर जुआ के कुल वधू
चीर हरण होता रहा माननीय के समक्ष
आत्म दाह किया नहीं तब क्यों?
किसने माना वो असमर्थ पुरुष है
बलात अधिकार का ये आरंभ इन्द्र से
हुआ और आज तक तक हो रहा निरंतर
नित
बदला है प्रारूप मात्र ‘
कहीं स्त्री खुद व्यापार बन जाती
तो कहीं किसी के लिए का मुद्रा लोभ
मगर सदैव लाचार
मिट चुकी है सभ्यता फिर भी जीवित हैं
परम्परा नौ दिन को यह देवी पूजन की