नौकर
दो कौड़ी का शख्स मोहर भर बात सुनाता है।
कभी कभी नौकर बनना खल जाता है।
वह गुर्राता थोड़ा जबर सा पद पाकर।
जब कि वह भी है मेरे जैसा चाकर।
जी हजूर कहने से दिल कतराता है।
कभी कभी नौकर बनना खल जाता है।
मुझको तो स्वाभिमान से है जीना भाता ।
लगन से करता जितना मुझको है आता ।
वही सफल आगे पीछे जो पूंछ हिलाता है।
चाटुकारिता कर ऊपर चढ़ जाता है।
मेरे जैसा इसी लिये कम पाता है।
कभी कभी नौकर बनना खल जाता है।
काम सभी का होता है वेतन दाता।
बात अलग कोई कम कोई ज्यादा पाता।
बेशक पद के रुतबे का सम्मान धरें।
बिलावजह कर्मी का न अपमान करें।
सोच समझ कर रहें सृजन बतलाता है।
कभी कभी नौकर बनना खल जाता है।
-सतीश सृजन