नौकरी का मज़ा
अजी नौकरी का भी अपना मज़ा है।
जहां अपनी चलती नही कुछ रज़ा है।
हुकम हाकिमों का बजाते रहो बस-
यहांँ ज़िन्दगी हर घड़ी इक क़ज़ा है।
दवाबों तनावों की बोझिल फ़ज़ा है।
बिना पाप के भोगता नित सज़ा है।
सवालों जवाबों से परहेज़ कर चल-
यहाँ कोई सुनता नहीं इल्तिज़ा है।
रहो जब तलक भी किसी नौकरी में।
न कुछ और सोचो कभी ज़िन्दगी में।
भुला दो सभी रिश्ते नाते जरूरत-
लगा दो अरे आग अपनी ख़ुशी में।
नियम हाकिमों के नए रोज बनते।
कि साहब यहां ख़ुद ही उलझन में रहते।
करें गलतियांँ हम तो सुनते हैं बातें –
मगर इनकी ग़लती मुनासिब ही रहते।
करो हर घड़ी सबकी तीमारदारी।
जताए बिना अपनी कोई लचारी।
न छुट्टी, न अर्जी, न आराम कुछ दिन-
लगाए रखो नौकरी की बिमारी।
ज़हन में ख़याल इसका ही जा-ब-ज़ा हो।
अमल हुक़म हो चाहे बेजा बजा हो।
चलेगी नहीं हुक्म उदूली एक भी –
कि इसमें तुम्हारी न बेशक रज़ा हो।
पड़ो चाहे बीमार या मर ही जाओ।
मगर नौकरी अपनी पहले बचाओ।
न जो कर सको तो अभी बात सुन लो-
उठाओ ये झोला तुरत घर को जाओ।
कभी कुछ न सोचो सिवा नौकरी के।
नहीं तुम हो कुछ भी बिना नौकरी के।
चलाता है घर बार यह नौकरी ही –
करो रात – दिन हक़ अदा नौकरी के।
रिपुदमन झा ‘पिनाकी’
धनबाद (झारखण्ड)
स्वरचित एवं मौलिक