नौकरी का भूत
[12/09/2020 ]
नौकरी का भूत
(व्यंग्य-कविता)
पढ़ लिख के मैं बड़ा हुआ जब,
ये मन में मैने ठाना ।
जिन सब का था कर्ज पिता पर,
वो मुझको जल्द चुकाना ।
नौकरी की आस को लेकर,
निकला घर से मतवाला ।
सफल सफर करके भैया मैं,
पहुच गया हूँ अम्बाला।
***
दो महिनें तक करी नौकरी ,
मन को थी कुछ ना भायी ।
पता चला कुछ भर्ती निकली,
दिल पे सब की थी छायीं ।
फौजी बनने की मेरे मन,
भी एक लालसा आयी ।
अब तो फौजी बन जाऊंगा,
मन एक उमंग सी छायी ।
***
फ़ौरन बैठ लिया हूँ बस पर,
पहुंचा गया मैं बरेली ।
देखा वहीं लगा रहे लड़के,
एक लम्बी सी रेली ।
नाप जोख में फिट निकला मैं,
रेश लगाने की बारी ।
रेश में भी उत्तीर्ण हुआ मैं,
खुशियां मन में अति भारी ।
***
किन्तु दुबारा नाप जोख की,
फिर से की है तैयारी ।
लम्बाई में कम निकले हम,
दुःख था मन में अति भारी ।
नौकरी आस हुई न पूरी,
वापस अब घर को आया।
जीवन यापन करने को अब,
कॉलेज में है पढ़ाया ।
***
थोड़ी उन्नति करके अब मैं,
खुद का स्कूल चलाता हूँ ।
यही नौकरी है अब मेरी,
खुद का दिल बहलाता हूँ ।
इसी तरह से मैं अपना अब,
जीवन यापन करता हूँ ।
समय कहीं मिलता है मुझको
कविता लिखता रहता हूँ ।
स्वरचित✍️
अभिनव मिश्रा
(शाहजहांपुर)