नैय्या की पतवार
जब हाथों दे दिया तुमको अपना हाथ तो डरना क्या ?
मेरी नैय्या की पतवार तुम्हारे हाथों में तो डरना क्या ?
मेरे साजन इस तरह रूठेगें यह मुझे मालूम न था ,
इतना हमसे दूर चले जायेंगे, मुझे मालूम न था ,
दुखयारी को इस कदर छोड़ेंगे मुझे मालूम न था ,
अरमानों को इस कदर तोड़ेंगे मुझे मालूम न था ,
जब हाथों दे दिया तुमको अपना हाथ तो डरना क्या ?
“गुनाहों की पोटली ” तेरे दर पर लाया तो डरना क्या ?
अब तो हर तरफ धुआँ ही धुआँ और आगे खाई है ,
तेरी “मनमोहक छवि ” मेरे दिल पर उतर आई है ,
आज ‘फूलों की नगरी ” क्यों सहमी- सकुचाई है,
जग के मालिक तेरी याद हमें अब बहुत आई है,
जब हाथों दे दिया तुमको अपना हाथ तो डरना क्या ?
नगरी की सलामती की भीख माँग रहा तो डरना क्या ?
अब फूलों के बाँटने का सौदा कभी न करेंगे,
फूलों की खुसबू के ठेकेदार कभी भी न बनेंगे,
तेरी इस नगरी में प्यार का दिया जलाते रहेंगे,
इंसानियत का पैगाम घर-२ पहुंचा कर रहेंगे,
जब हाथों दे दिया तुमको अपना हाथ तो डरना क्या ?
तेरी चोखट पर रख दी अपनी“ श्वाश ” तो डरना क्या ?
देशराज “राज”