नूर –ऐ- चश्म ( अमर गायक स्व. मुहम्मद रफ़ी साहब के जन्म दिवस पर विशेष )
हाय! क्या कहिये की किस कदर हसीं है कोई ,
इंसा है या ज़मीं पर उतर आया आफताब कोई।
दरिया नहीं ,सागर भी नहीं ,वो है नूर-ऐ-चश्म ,
मयस्सर नहीं जिसे आब-ऐ-हयात है बदनसीब कोई।
इस जहाँ के गोशे –गोशे में पुरअसर है हुस्न उसका ,
ज़र्रे –ज़र्रे में महकते हो जैसे लाखों गुलाब कोई।
आँखें है उसकी या मयखाने औ उसपर बेशुमार प्यार
तस्कीं हुई बेकरार रूह हमारी पाकर माहताब कोई।
है यह अजीब इत्तेफाक की वोह बेखबर है खुद से ,
कोई नाशाद हुआ उसकी बला से आबाद हुआ कोई।
वो कोई सुरीला साज़ छेड़े या खामोश भी क्यों रहे ,
दोनों ही सूरत में झंजनाता है दिल का तार कोई।
यह अक्स ,यह अंदाज़ और दिलकश अदाएं तौबा
अनु ! यूँ ही नहीं उस हसीं का दीवाना हुआ कोई ।